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अनेकान्त-57/3-4
चारित्र पालन के प्रति उत्साह बढ़ता है । सदाकाल विहार करते रहने पर धर्म में प्रीति बढ़ती हैं। पाप से भयभीत रहता है । सूत्रार्थ में प्रवीणता आती है । ' दूसरे के संयम को देखने से धर्माराधकों की धर्माराधना को देखने से स्वयं को धर्म में स्थितिकरण की भावना जगती है ।' निरन्तर विहार करने वाले साधु को चर्या परीषह होती है, कंकण मिट्टी पैरों में चुभती है । पादत्राण रहित चरणों से मार्ग में चलने पर जो वेदना उत्पन्न होती है उसे संक्लेश भाव रहित सहन करने पर चर्यापरीषह सहन होती है जिससे संयम की वृद्धि होती है । क्षुधा, तृषा, शीत उष्ण परीषह सहन की शक्ति बढ़ती है।' अनेक क्षेत्रों में विहार करने वाले साधु को अतिशय रूप अर्थ में प्रवीणता भी आ जाती है। जैसा कि कहा है
णाणा से कुसलो णाणादेसे गदाण सत्थाणं ।
अभिलाव अत्थकुसलो होदि य देसप्पवेसेण । । भग. आ. 153
नवीन नवीन स्थानों पर विहार करने से अनेक देशों के रीति-रिवाज का ज्ञान होता है लोगों के चारित्र पालन की योग्यता - अयोग्यता की जानकारी होती है । अनेक मन्दिरों आदि स्थानों पर विराजमान शास्त्रों में प्रवीणता होती है | अर्थ बोध होता है । अनेक आचार्यों के दर्शन लाभ से अतिशय रूप अर्थ में कुशलता भी होती है । '
देशान्तरों में विहार करने वाले साधु को उस क्षेत्र का परिज्ञान होता है जो क्षेत्र कर्दम, अंकुर त्रस जीवों की बहुलता से रहित हैं। जीव बाधा रहित गमन योग्य क्षेत्र को भी जान लेता है। जिस क्षेत्र में आहार पान मिलना सुलभ होता है और सल्लेखना आदि के योग्य होता है उसका भी ज्ञान होता है। इसलिए अनियतविहार आवश्यक है । "
इसी सम्बन्ध में और भी कहा हैप्रेक्ष्यन्ते बहुदेश संश्रयवशात्संवेगिताद्यांप्तयस्तीर्थाधीश्वर केवली द्वयमही निर्वाणभूम्यादयः । स्थैर्यं धैर्यं विरागतादिषु गुणेष्वाचार्यवर्ये, क्षणद्विद्या वित्तसमागमाधिगमो नूनार्थ सार्थस्य च ।।