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________________ . अनेकान्त-57/3-4 गामेयरादिवासी णयरे पंचातवासिणो धीरा। सवणा फासुविहारी विविक्त एगांतवासी।। मू. आ.-487 बोधपाहुड टीका में इस प्रकार कहा है कि-वसितै वा ग्राम नगरादौ वा स्थातव्यं नगरे पंचरात्रे स्थातव्यं ग्रामे विशेषेण न स्थातव्यम् (42/107) अर्थात् नगर में पांचरात्रि और गांव में विशेष नहीं रहना चाहिए। वर्षावास समाप्त होने पर श्रमण को विहार तो करना ही होता है किन्तु यदि वर्षा का आधिक्य हो नदी नालों के तीव्र प्रवाह के कारण मार्ग दुर्गम हो गये हों कीचड़ आदि की अधिकता हो या बीमारी आदि का भी कारण हो तो साधु वर्षायोग के बाद भी नगर ग्राम के जिनमन्दिर में ठहरे रह सकते हैं। आचार्यवर्य सिद्धान्तसार संग्रह में वर्षाकाल में मुनि को समिति क्षेत्र से बाहर जाने की परिस्थियों को भी दर्शाते हैं द्वादश योजनान्येव वर्षाकालेऽभिगच्छति। यदि संघस्य कार्येण तदा शुद्धो न दुष्यति।। 10/59 यदि वाद-विवादः स्यान्महामतविघातकृत। देशान्तरगतिस्तस्मान्न च दुष्टो वर्षास्वपि ।। 10/60 वर्षाकाल में संघ के कार्य के लिए यदि मुनि बारह योजन तक कहीं जायेगा तो उसका प्रायश्चित्त ही नहीं है और यदि वाद-विवाद से महासंघ के नाश होने का प्रसंग हो तो वर्षाकाल में भी देशान्तर जाना दोषयुक्त नहीं है। भगवती आराधना में तो अनियतविहार नामक साधु की चर्या का पृथक अधिकार ही है। इसमें अनियतविहार द्वारा साधु में दर्शन की शुद्धता, स्थितिकरण, भावना, अतिशयार्थकुशलता, क्षेत्रपरिमार्गणा गुणों की उत्पत्ति बतायी है। - अनेक क्षेत्रों में विहार करने से साधु तीर्थकरों की जन्म, तप, ज्ञान और समवशरण की भूमियों के दर्शन और ध्यान करने से अपने सम्यक्त्व को निर्मल रखता है। जगह-जगह विहार के काल में अन्य वीतरागी साधकों से मिलने पर संयम की अभिवृद्धि होती हे उनके उत्तम चारित्र को जानकार स्वयं उत्तम
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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