SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त-57/3-4 स्थापित करने की सफलता है क्योंकि पूर्वाचार्यों ने तो गिरी कंदरा या वन में निवास करने को कहा हैं-शून्यघर, पर्वतगुफा, वृक्षमूल, अकृत्रिमघर, श्मशानभूमि, भयानक वन, उद्यानघर, नदी का किनारा आदि उपयुक्त वसतिकाएं हैं। बोधपाहुड़ में भी कहा है इनके अतिरिक्त अनुदिष्ट देव मन्दिर, धर्मशालाएं, शिक्षाघर आदि भी उपयुक्त वसतिकाएं हैं। जिनेन्द्रमन्दिरे सारे स्थितिं कुर्वन्ति येऽङ्गिनः। तेभ्यः संवर्द्धते धर्मो धर्मात्संपत् परानृणाम् ।। श्रेष्ठ जिनमन्दिर में जो मुनिराज आदि ठहरते हैं, उनसे धर्म बढ़ता है और धर्म से मनुष्यों को श्रेष्ठ सम्पत्ति की प्राप्ति होती है और भी कहा है मुनिः कश्चित् स्थानं रचयति यतो जैनभवने, विधत्ते व्याख्यानं यदवगमतो धर्मनिरताः। भवन्तो भव्यौघा भवजलधिमुत्तीर्यसुखिनरततस्तत्कारी किं जनयति जनो यन्न सुकृतम् ।। यतश्च जिनमन्दिर में कोई मुनिराज आकर ठहरते हैं, तथा व्याख्यान करते हैं, जिनके ज्ञान से भव्य जीवों के समूह धर्म में लीन होते हुए संसार समुद्र को पारकर सुखी होते हैं। अतः जिनमन्दिर के निर्माण कराने वाला पुरुष ऐसा कौन पुण्य है, जिसे न करवाता हो। साधु के योग्य निवास के सम्बन्ध में आचार्य अकलंक यह लिखते हैंसंयतेन शयनासन शद्धिपरेण । स्त्रीक्षद्रचौरपानाक्षशौण्ड शाकुनिकादिपापजनवासावाः शृंगारविकारभूषणोज्जवलवेषवेश्याक्रीड़ाभिरामगीतनृत्यवा-दित्ताकुलशालादयश्च परिहर्तव्या। अकृत्रिमगिरिगुहातरुकोटरादयःकृत्रिमाश्च शून्यागारादयो, मुक्तमोचितावासा अनात्मोद्देशनिर्वतिता निराम्भा सेव्या। (तत्त्वार्थवार्तिक 9/5 पृ. 552) शय्या और आसन की शुद्धि में तत्पर साधु को स्त्री, क्षुद्र, चौर, मद्यपायी, जुआरी, शराबी और पक्षियों को पकड़ने वाले आदिं पापी जनों के स्थान में वास नहीं करना चाहिए तथा शृंगार, आभूषण, उज्जवल, वेश की क्रीड़ा से अभिराम
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy