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अनेकान्त - 57/1-2
इस लोक में सामान्य से रहित ये विशेष क्या अपने आपको धारण करते हैं? अर्थात् नहीं । निश्चय से जिनके एक द्रव्य की विस्तृत अनन्त पर्यायों का समूह बीत चुका है अर्थात् जो नाना पर्यायों के द्वारा विशेष रूप हैं और जो दर्शन ज्ञान के चमत्कार से सरस हैं अर्थात् दर्शन और ज्ञान की अपेक्षा सामान्य रूप हैं ऐसे आप वस्तुपने को प्राप्त होते हैं
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यहाँ नैयायिक वैशेषिकों के एकान्तमत का खण्डन और पदार्थ की सामान्यविशेषात्मकता सिद्ध की गई है।
केवलज्ञान माहात्म्य का अलौकिक वर्णन हृदय ग्राह्य बनाना आचार्य अमृतचन्द्र की रचना का वैशिष्ट्य है । "
निश्चय-व्यवहार का आश्रय लेकर स्तुतियां की हैं आचार्य स्वयं दशवीं स्तुति करते हुए कहते हैं कि मैं विशुद्ध विज्ञानधन आपकी एकमात्र शुद्धनय की दृष्टि से स्तुति करूँगा । इसका तात्पर्य है इससे पूर्व व्यवहार दृष्टि रही है क्योंकि बाहूह्य क्रिया कलापों को लेकर स्तुतियां की गई हैं, व्यवहार धर्म के रूप ये क्रियायें आवश्यक होती हैं
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इस प्रकार सम्यक् परिशीलन करने पर कहा जा सकता है कि इस स्तुतिकाव्य में सभी सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया गया है। इसका यह विवेचन समयसार आदि ग्रन्थों के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र सूरि द्वारा ही किया जाना संभव है क्योंकि अमृतकलश से भाषा भाव आदि सभी विषयों में साम्य है । निसंदेह यह स्तुति काव्य अनुपम एवं महत्त्वपूर्ण है ।
सन्दर्भ
1. इत्यमृतचन्द्रसूरीणा कृति शक्तिम भणितकोशो नाम लघुतत्त्वस्फोट समाप्त ।।
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अस्याः स्वय र सिगाढनिपीडिताया संविद्विकासरसवीचिभिरुल्लसन्त्याः । आस्वादयत्वमृतचन्द्रकवीन्द्र एष हृष्यन् बहूनि मणितानि मुहुः स्वशक्तेः । । लघु
3. वर्णे कृतानि चित्र पदानितु पदैः कृतानि वाक्यानि ।
वाक्यै कृतं पवित्रं शास्त्रमिद न पुनरस्याभिः । । पुसि
वर्णः पदानां कर्तारो वाक्याना तु पदावलि. ।