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________________ अनेकान्त-57/1-2 15 आपके शरीर को जलाती थी किन्तु आप कर्मफल के परिपाक की भावना में उन्हें अमृत के कणों के समान मानते थे। रात्रि में शवासन से स्थित रहते हुए श्रृगालों ने आपके सूखे शरीर को अपने दांतो से काटा बुद्धिमान रोगी जैसे रोग को दूर करने के लिए उपवास करता है, वैसे ही आपने अनादि राग को दूर करने के लिए एकमास अर्द्धमास के उपवास किये। इस प्रकार सम्पूर्ण आत्मबल से संयम को धारणकरके कषाय के क्षय से केवलज्ञानी हुए। आचार्य अमृतचन्द्र ने ज्ञान के साथ संयम तप आदि को आवश्यक माना है। समयसार में विशेषरूप से भेद विज्ञान का कथन होने से आचार्य अमृत चन्द्र ने संयम-तप पर जोर नहीं दिया अतः कुछ स्वाध्यायियों ने तप संयम को गौणकर व्याख्यान देना शुरु किये और आचार्य अमृतचन्द्र के विषय में भी कहना शुरु किया कि इन्होंने ज्ञान को ही बल दिया है। ज्ञान की मुख्यता में इन्हीं का उल्लेख किया गया। यह दोष एकांगी अध्ययन का फल होता है। किसी भी आचार्य का समग्र साहित्य पढ़कर ही उसके प्रमाण देना उचित होता है। स्ततिकर्ता ने स्तति में कारण कार्य सम्बन्ध को दर्शाते हए अभेदनय की दृष्टि में कर्ता कर्म और क्रिया तीनों एक ही पदार्थ है भिन्न भिन्न नहीं हैं। इसलिए आराध्य में उनका भेद नहीं किया।" बौद्धाभिमत ज्ञानाद्वैत का निराकरण कर जैन सम्मत ज्ञानाद्वैत का वर्णन भी विस्तार से किया है।" बौद्धसिद्धान्तों का खण्डन कर जिनमत की स्थापना महत्वपूर्ण है। ___सामान्य विशेष की सम्यक् मीमांसा इस स्तुति काव्य में श्री अमृतचन्द्र सूरि के द्वारा की गई हैसामान्यस्योल्लसति महिमा किं बिनासौ विशेषै निः सामान्या स्वमिह किमयी धारयन्ते विशेषाः। एकद्रव्यग्लपितविततानन्त पर्याय पुञ्जो दृक्संवित्ति स्फुरित सरसस्त्वं हि वस्तुत्व भेषि+। 6/22 विशेषों के बिना क्या सामान्य की महिमा उल्लसित होती है अर्थात् नहीं।
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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