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अनेकान्त-57/1-2
कहने में समर्थ होते हैं कि स्व की अपेक्षा से पदार्थ अस्तिरूप है। पर की अपेक्षा से नास्ति रूप है।'
स्याद्वाद और अनेकान्त आचार्य अमृतचन्द्र के प्रिय प्रतिपाद्य हैं उन्होंने इस स्तुतिकाव्य में तो बाहुल्य रूप से इस जैनदर्शन के प्राणतत्त्व की मीमांसा की है और अपने द्वारा की हुई टीकाओं में अनेकान्त स्याद्वाद को ही सर्वप्रथम नमन किया। स्मरण किया है।
उत्पाद व्यय ध्रौव्यपने से एक ही वस्तु को प्रतिसमय माना गया है उसी को दर्शाते हुए स्तुतिकार ने कहा है
य एवास्तमुपैशि त्वं स एवोदीयसे स्वयम् । स एव ध्रुवतां घत्से य एवास्तमितोदितः।। 201। लघु तत्त्वफोट
जो ही आप व्यय को प्राप्त होते हैं, वही आप स्वयं उत्पाद को प्राप्त होते हैं और जो ही आप व्यय होकर उत्पाद को प्राप्त होते हैं, वही धुव्र पने को धारण करते हैं।
यहाँ उत्पाद व्यय और ध्रौव्यपने से द्रव्य को तन्मय बताया है। आचार्य समन्तभद्र ने घट का व्यय मौलि का उत्पाद और स्वर्ण का ध्रुव रूप सद्भाव के उदाहरण के माध्यम से एक ही वस्तु की उत्पादव्यय ध्रौव्यात्यकता सिद्ध की है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने द्रव्य के लक्षण को बताते हुए “उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्" 'सत् द्रव्यलक्षणम्' कहा ही है.
"स्तुति के द्वारा संयम और तप का भी माहात्म्य दिखलाया है__ हे प्रभो! निरन्तर ज्ञानरूपी रस का पान करते हुए और बहिरंग तथा अन्तरंग संयम का निर्दोष पालन करते हुए निश्चित ही मैं स्वयं तुम्हारे समान हो जाऊँगा। इसी प्रकार नौवीं स्तुति में संयम और तप को लेकर स्तुति की है-हे भगवन! आपने परमार्थ के विचार के सार को अपनाया, निर्भय होकर एकाकी रहने की प्रतिज्ञा की अन्तरंग बहिरंग परिग्रह का त्याग किया और प्राणियों पर दया भाव किया। आतापन योग करते समय सूर्य की तीक्ष्ण किरणें