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________________ अनेकान्त - 57/1-2 13 जिनशासन स्याद्वाद मुद्रा 8 से प्रतिष्ठित होने के कारण एक पदार्थ में एक साथ रहने वाले विरोधी धर्मो की अवस्थिति को स्वीकार करता है। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी इसका प्रतिपादन करते हुए कहते हैं - अवस्थितिः सा तव देव दृष्टेर्विरुद्ध धर्मेष्वनवस्थितिर्या । स्खलन्ति यद्यत्र गिरः स्खलन्तु जातं हितावन्यहदन्तरालम् ।। 8/19 लघु. हे देव! विरुद्ध धर्मो में जो एक के होकर नहीं रहना है, वह आपकी दृष्टि की स्थिरता है - आपके सिद्धान्त की स्थिरता है । यदि इस विषय में वचन स्खलित होते हैं तो स्खलित हों क्योंकि दोनों - आप तथा अन्य की दृष्टि में बहुत अन्तर-भेद सम्पूर्णरूप से सिद्ध हो गया । जिनेन्द्र भगवान द्वारा ही स्याद्वाद सिद्धान्त का प्रणयन किया गया है जैसा कि आठवीं स्तुति में आचार्य ने लिखा भी है गिरां बलाधान विधान हेतोः स्याद्वाद मुद्रामसृजस्त्वमेव । तदङ्कितास्ते तदतत्स्वभावं वदन्ति वस्तु स्वयमस्खलन्तः ।। 20 / 8 लघु. हे भगवन्! शब्दों में दृढ़ता स्थापित करने के लिए आपने ही स्याद्वाद मुद्रा को रचा है - इस सिद्धान्त को प्रतिपादित किया है । इसलिए उस स्याद्वाद मुद्रा से चिन्हित वे शब्द स्खलित नं होते हुए अपने आप वस्तु को तत् अतत् स्वभाव से युक्त कहते हैं । संसार के पदार्थ विधि और निषेघ दोनों रूपों से कहे जाते हैं अर्थात् स्वकीय चतुष्टय की अपेक्षा अस्ति आदि विधिरूप है और परचतुष्टय की अपेक्षा निषेध आदि नास्तिरूप हैं। पदार्थ का कथन करने वाले शब्द अभिधा शक्ति के कारण नियन्त्रित होने से दो विरोधी धर्मो में से एक को कहकर क्षीण शक्ति हो जाते हैं दूसरे धर्म को कहने की उनमें सामर्थ्य नहीं रहती। एक अंश के कहने से वस्तु का पूर्णस्वरूप कथन में नहीं आ पाता इस स्थिति में हे भगवन्! आपके अनुग्रह से स्याद्वाद की कथञ्चिद्वाद का आविर्भाव हुआ । उसके प्रबल समर्थन से शब्द दोनों स्वभावों से युक्त तत्त्वार्थ का व्याख्यान करने में समर्थ होते हैं । अर्थात् स्याद्वाद का समर्थन प्राप्त कर ही शब्द यह 2
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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