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अनेकान्त-57/3-4
जैन दर्शन की लोक व्यवस्था का मूल मंत्र है, कि किसी भाव अर्थात् सत् का अत्यन्त नाश नहीं होता और किसी अभाव या असत् की उत्पाद नहीं होता। सभी पदार्थ अपने गुण और पर्याय रूप से उत्पाद व्यय करते रहते हैं। इस सम्बन्ध में निम्न गाथा दृष्टव्य है
"भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो। गुण पज्जएसु भावा उप्पायवयं पकुव्वंति
(-पंचा. गाथा 15, जैन दर्शन-पृष्ठ 68) सत्ता, सत्व, सत्, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि ये नौ सामान्य रूप से अर्थ के ही वाचक हैं।
द्रव्य को गुण और पर्याय वाला कहा गया है। ‘अन्वयिनो गुणाः' अर्थात् गुण अन्वयी होते हैं और द्रव्य के साथ सदैव रहते हैं। 'व्यतिरेकिणः पर्यायाः' अर्थात् पर्याय व्यतिरेकी या क्षणक्षयी होती हैं। प्रत्येक द्रव्य में सहभावी गुण
और क्रमभावी पर्यायें होती हैं। गुण द्रव्य की शक्तियाँ हैं। 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' (तत्त्वार्थ सूत्र 5/41)! जो द्रव्य के आश्रय से रहता हुआ भी दूसरे गुण से रहित होता है, उसे गुण कहते हैं। द्रव्य और गुण के मध्य आधार-आधेय सम्बन्ध होता है। गुण दो प्रकार के होते है-सामान्य और विशेष! अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, द्रव्यत्व, प्रदेशत्व और अगुरुलघु ये सामान्य गुण हैं तथा चेतनत्व, रूपादित्व आदि विशेष गुण हैं। द्रव्य के गुणों में परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध होता है। इस दृष्टि से, जहाँ एक गुण है वहाँ उस द्रव्य के अन्य गुण भी रहते हैं। इसी प्रकार द्रव्य और गुणों के मध्य नित्य तादात्म्य सम्बन्ध होता है। इस कारण द्रव्य से गुण कभी भिन्न नहीं होते। द्रव्य के सभी गुण स्वतंत्र होते हैं। एक गुण दूसरे गुण में हस्तक्षेप नहीं करता।
• द्रव्य की परिणति या कार्य को पर्याय कहते हैं। द्रव्य के गुणों में निरंतर परिवर्तन होता रहता है। इस अवस्था परिवर्तन को ही पर्याय कहते हैं। क्षण-क्षयी पर्यायें तत्काल की योग्यता से होती हैं। पर्यायें भी सत् हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में सत् द्रव्य, सत् गुण और सत् पर्याय कहकर सत्ता