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अनेकान्त-57/3-4
नोकर्म जीव के साथ अनादि से लगे हैं, वे सब पुद्गल रूप हैं। जीव द्रव्य ज्ञान, दर्शन, चारित्र सुख और वीर्य जैसे अनंत अनुपम गुणों से युक्त है। अरूपी होते हुए भी सुख-दुःख, ज्ञान-दर्शन आदि का अनुभव जीव ही करता है। जीव द्रव्य
और पुद्गल द्रव्य का परिणमन स्वभाव और विभाव रूप होता है। शेष चार द्रव्यों का परिणमन स्वभाव रूप ही होता है। धर्म द्रव्य गति हेतुत्व, अधर्म द्रव्य स्थिति हेतुत्व, आकाश द्रव्य अवगाहन हेतुत्व और काल द्रव्य परिणमन हेतुत्व स्वभाव वाले हैं।
छहों द्रव्य अनादि-अनंत हैं, स्वतंत्र, स्वाधीन और स्वयंभू हैं, नित्य हैं। स्वयं उपदान शक्ति अनुसार निरंतर परिणमन करते हैं। इन द्रव्यों के मध्य कर्ता-कर्म सम्बन्ध न होकर मात्र निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होता है। षटप्रकार की क्रिया के कारण कर्ता-कर्म एक ही द्रव्य में घटित होते हैं, इसका आधार है भाव्य-भावक भाव की विद्यमानता जैसे-मिट्टी और घड़ा। भाव्य-भावकभाव के अभाव के कारण कोई किसी का भोक्ता भी नहीं है। चेतन और जड़ जगत के मध्य ज्ञायक-ज्ञेय सम्बन्ध हैं। सभी द्रव्यों में परस्पर एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध है। स्वयं परिणमनशील द्रव्यों का समूह लोक होने के कारण इस लोक का कोई कर्ता-हर्ता, रक्षक-विनाशक नहीं है।
आचार्य उमास्वाति एवं अन्य आचार्यों ने द्रव्य का लक्षण ‘सत् द्रव्यलक्षणम्' (सूत्र 5/29), 'उत्पादव्यपध्रौत्ययुक्तं सत्' (सूत्र 5/30) एवं 'गुण पर्ययवद् द्रव्यम्' (सूत्र 5/38) कहा है। जो सत्ता रूप है वह द्रव्य है। सत्ता स्वभावतः उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों से युक्त होती है। यही सत् का लक्षण है। ब्रह्मा, महेश और विष्णु सत् के प्रतीक रूप हैं। प्रत्येक सत् प्रतिक्षण परिणमन करता है। अपने मौलिक तत्व अर्थात् द्रव्यत्वं को स्थिर. (ध्रौव्य) रखकर पूर्व पर्याय का विनाश और उत्तर पर्याय की उत्पत्ति होना, द्रव्य की नियति है। पुद्गल द्रव्य के रूपांतरण हमारी दृष्टि में आते हैं और पुद्गल द्रव्य के माध्यम से जीव द्रव्य के परिणमन अनुभव में आते हैं। शेष द्रव्यों का परिणमन आगम प्रमाण है। इस प्रकार द्रव्य स्वभाव नित्यानित्य है। द्रव्य रूप से नित्य, पर्यायरूप से अनित्य। ।