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अनेकान्त-57/3-4
नियम से मोहोपचय-मोह का समूहक्षय हो जाता है इसलिए शास्त्र का सम्यक् प्रकार से अध्ययन करना चाहिये। __ आचार्य देव के अनुसार, शुद्धनय से शुद्धात्मा की उपलब्धि होती है जिसमें साधक 'मैं पर का नहीं हूँ, पर मेरे नहीं हैं, मैं एक ज्ञान हूं' इस प्रकार ध्रुव आत्मा का ध्यान करता है। वह ध्याता ध्यान काल में (एकाग्रचिंता निरोध के समय) वास्तव में शुद्धात्मा होता है (गा. 191)। परम आत्मा का ध्यान करने वाले विशुद्धात्मा साधक की मोहग्रंथि का क्षय हो जाता है, भले ही वह साकार हो या निराकार (गाथा 194)। मोहग्रंथि के क्षय के पश्चात् राग-द्वेष का क्षय कर समत्व भाव से श्रमण अक्षय सांख्या को पाता है। (गा. 195)। इस कथन से मोक्षमार्ग को सोपानों का भी ज्ञान होता है। __ भाव-विहीन अर्थात् सम्यग्दर्शन रहित धर्म-कर्म की बाह्य क्रियाएँ जप-तप निरर्थक होते हैं इस सम्बन्ध में भाव पाहुड में आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि 'भाव रहित साधु यदि जन्म-जन्मातरों तक कायोत्सर्ग मुद्रा में वस्त्रादिक का त्याग कर, करोड़ों वर्षों तक तपस्या करे तब भी उसे सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती (गा. 4)।
पदार्थो के यथार्थ बोध रूप ज्ञान की महिमा दर्शाने वाले छहढालाकार पं. दौलतराम जी के निम्न पद भी दृष्टव्य हैं
ज्ञान समान न आन, जगत में सुख को कारण। इहि परमामृत जन्म-जरा-मृतुरोग निवारण।। कोटि जन्म तप तपें, ज्ञान बिन कर्म झरे जे। ज्ञानी के छिन माहिं, त्रिगुप्ति तैं सहज टरै ते।। मुनिव्रत धार अनंतबार, ग्रीवक उपजायो। पै निज आतम ज्ञान बिना, सुख लेश न पायो।। जे पूरब-शिव गये जाहिं, अरु आगे जै हैं। सो सब महिमा ज्ञान-तनी, मुनिनाथ कहै हैं ।।
(छहढाला-चौथी ढाल)