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अनेकान्त-57/3-4 ,
सूत्रकार आचार्य उमास्वाति ने तत्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है। 'तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' (तत्त्वार्थ सूत्र 1/2)। 'तत्त्वेन अर्थ : तत्त्वार्थः'-तत्त्व अर्थात वस्तु के यथार्थ भाव-स्वरूप सहित अर्थ-जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। नियमसार में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश यह तत्त्वार्थ कहे हैं, जो विविध गुण पर्याय युक्त हैं (गा. 9)। आत्मा के संदर्भ में शुद्धात्मा का जैसा स्वरूप है उसको उसी रूप जानना, समझना और अनुभव करना सम्यग्दर्शन है। आत्मानुभव युक्त ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान नाम पाता
'तन्निसर्गादधिगमाद्वाः (तत्त्वार्थ सूत्र 1/3)। सम्यग्दर्शन निसर्ग अर्थात स्वभाव से अथवा अधियम-पर के उपदेश से उत्पन्न होता है। इसे ही देशनालब्धि कहते हैं। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार अधिगम का अर्थ पदार्थ का ज्ञान है, जो नय-प्रमाण द्वारा होता है। अधिगमोऽर्थाववोधः (स. सि. 1/3/12) एवं प्रमाणनयैरधिगमः (तत्त्वार्थ सूत्र 1/6)।
धवलाकार के अनुसार अधिगम और ज्ञान प्रमाण ये दोनों एकार्थवाची हैं- 'अधिगमो णाणपमाणमिदि एगट्ठो' (धवला-3/1-2-5/39/1)। अधिगम के दो भेद हैं- स्वार्थाधिगम जो ज्ञानात्मक है और परार्थाधिगम जो वचनात्मक
__ यह भी उल्लेखनीय है कि सभी जीवात्माएँ द्रव्य दृष्टि से सिद्ध समान शुद्ध, स्वतंत्र, स्वाधीन और परिपूर्ण हैं। द्रव्य-तत्त्व-पदार्थों के ममत्व तथा कर्तृत्व-भोक्तृत्व बुद्धि एवं तदनुसार आचरण के कारण अष्ट कर्म के बंधनों से आबद्ध हैं और कर्मोदय के अनुसार अनादिकाल से चार गति और चौरासी लाख योनियों के दुख उठा रहीं हैं। अज्ञान जन्य विभाव परिणति के कारण वे द्रव्यकर्म, भावकम ओर नौकर्मो से अपने को बंधी हुई मानती हैं और कर्म प्रकृति के उदय अनुसार नर-नरकादि पर्याय से अपने को एकाकार मानती हैं। ज्ञान, दर्शन, सुख रूप आत्म-शक्ति के अंशों में हानि-वृद्धि रूप पर्याय भेद मानती हैं। अखंड आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि गुणों को भेद रूप मानतीं है तथा कर्मोदय से आत्मा में उत्पन्न मोह-राग-द्वेषादि मनोविकारों से अपने को