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________________ 46 अनेकान्त-57/3-4 दंसण मूलो धम्मो-अर्थात् धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है और दर्शन हीन व्यक्ति अवंदनीय है, ऐसा कहा है (गा.2)। उनके अनुसार जो दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे भ्रष्ट ही हैं उन्हें निर्वाण नहीं होता। चारित्र से भ्रष्ट को पुनः चारित्र धारण करने पर सिद्धि मिल सकती है पर दर्शन हीन को नहीं (गा. 3)। दर्शन रहित व्यक्ति उग्र तपश्चर्या के बाद भी बोधि अर्थात् रत्नत्रय को प्राप्त नहीं होता भले वह एक हजार कोटि वर्ष तक तप क्यों न करे (गा. 5)। सम्यक्त्व से चारित्र होता है। चारित्र से मुक्ति होती है। सम्यक्त्व के अभाव में चारित्र भी मिथ्याचारित्र कहलाता है। (गा. 31/15। जिसके हृदय में सम्यक्त्व रूपी निर्मल जल प्रवाहित होता है उसे कर्मरज आवृत नहीं करती तथा पूर्वबद्ध कर्मो की भी निर्जरा होती है (गा. 7)। ___ आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्र/धर्म का स्वरूप प्रवचनसार की गाथा 7 में निम्न रूप से दर्शाया है चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोह विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो।। अर्थ-चारित्र वास्तव में धर्म है। जो धर्म है वह साम्य है ऐसा शास्त्रों में कहा है। साम्य मोह-क्षोभ रहित ऐसा आत्मा का परिणाम (भाव) है। ___ मोह-क्षोभ रहित आत्मा के वीतरागी-शुद्ध परिणामों की प्राप्ति हेतु मोह क्षयार्थ आचार्य कुन्दकुन्द देव ने कहा कि जो अरहंत को द्रव्यपने, गुणपने और पर्यायपने जानता है, वह अपने आत्मा को जानता है और उसका मोह अवश्य लय को प्राप्त होता है। इस सम्भावना में प्रवचनसार की निम्न गाथा द्रष्टव्य जो जाणदि अरहंतं दव्वत्त गुणत्त पज्जयत्तेहिं। सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ।। (प्र. सा. 80) प्रवचनसार की गाथा-86 में आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रकारान्तर से मोह क्षय हेतु कहा कि 'जिनशास्त्र द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को जानने वाले के
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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