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अनेकान्त-57/3-4
शीलसप्तकवर्णन, पद्य 22 और ऊपर का गद्य, 24. धर्मसंग्रह श्रावकाचार, 6/283-290
25. गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् ।
अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः ।।
- रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 33
26. लाटीसंहिता, 4/18-20, 27. क्षत्रचूडामणि 2 / 16, 28. ज्ञानार्णव, 4 / 17, 29 वसुनन्दिश्रावकाचार, 320-326, 30. धर्मसंग्रहश्रावकाचार, 6/29, 31. धर्मोपदेशपीयूषवर्ष श्रावकाचार, 4 / 156, 32. क्रियाकोष, मंगलाचरण 34-35, 33. अमितगति श्रावकाचार, 8/76-86, 34. वही, 8/87, 35. धर्मसंग्रहश्रावकाचार, 6 / 294, 36. द्रष्टव्य-सागार धर्मामृत, 2/42-45, 37. वही, 2/64-66, 38. धर्मसंग्रह श्रावकाचार, 7/120, 39. उमास्वामि श्रावकाचार, 183-185, 40. श्रावकाचारसारोद्धार, 3/5, 41. रत्नमाला, 22-25, 42. पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका, 16-19, 43. रयणसार, 70-72
- उपाचार्य एवं अध्यक्ष - संस्कृत विभाग एस. डी. कॉलेज, मुजफ्फरनगर
"नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्त्ववादे । न पक्षसेवाश्रयणेन मुक्तिः, कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव । ।"
मुक्ति न तो केवल दिगम्बर होने में है और न श्वेताम्बर बनने में, वह न कोरे तर्कवाद में रखी है और न तत्त्ववाद में ही पायी जाती है, पक्ष सेवा का आश्रय लेने से भी मुक्ति नहीं मिलती, मुक्ति तो वास्तव मे कषायमुक्ति है।