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अनेकान्त-57/3-4
ज्ञानरूपी नेत्र प्राप्त होता है। उनके द्वारा समस्त विश्व के पदार्थ हस्तरेखा के समान स्पष्ट दिखाई देते हैं। अतः ज्ञानार्थी गृहस्थ को भक्तिपूर्वक गुरुजनों की वैयावृत्ति और वन्दना करना चाहिए। जो गुरुजनों का सम्मान नही करते हैं, न उनकी उपासना करते हैं, सूर्योदय होने पर भी उनके हृदय में अज्ञानान्धकार बना ही रहता है।"
रयणसार में गुरुभक्ति का महत्त्व बताते हुए कहा गया है कि गुरुभक्ति से विहीन शिष्य नियम से दुर्गति के मार्ग पर चल रहे हैं। ऊसर खेत में बोये गये बीज के समान गुरुभक्ति से विहीन सर्वपरिग्रहरहित भी शिष्यों का तप आदि निष्फल समझना चाहिए। जैसे प्रधान के बिना राज्य, स्वामी के बिना देश, ग्राम, राष्ट्र एवं सेना का विनाश हो जाता है, उसी प्रकार गुरुभक्तिहीन शिष्यों के सभी अनुष्ठान विनाश को प्राप्त होते हैं। 43
सन्दर्भ
1. क्षत्रचूडामणि, 2/30, 2. वही, 2/2 एवं 2/59, 3. भगवती आराधना 300 की विजयोदया टीका 4. विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते।।
-रत्नकरण्डश्रावकाचार 10 एवं उसकी प्रभाचन्द्री टीका 5. लाटी संहिता, तृतीय सर्ग, 6. उमास्वामिश्रावकाचार, 14-15, 7. श्रावकाचारसारोद्धार, 140-141, 8. रत्नमाला, 8, 9. पुरुषार्थानुशासन, 3/30-35, 10. अमितगतिश्रावकाचार, 1/43, 11. हरिवंशपुराण, 21/128-131, 12. आदिपुराण, 9/172, 13. उमास्वामिश्रावकाचार, 186-192, 14. अमितगति श्रावकाचार, 1/3, 15. वही, 12/25-27 16. 'यद्धयेति स्वयं चापि शिष्यानध्यापयेत् गुरुः।।
पञ्चाध्यायी, उत्तरार्द्ध 661 17. अमितगतिश्रावकाचार, 1/4, 18. वही, 12/28-30 19. समणो संजदो ति य रिसि मुणि साधु त्ति वीदरागो त्ति। णामाणि सुविहिदाणं अणगार भदंत दंतो त्ति।।
मूलाराधना, 888 20. तत्त्वार्थसार, 9/5, 21. अमितगतिश्रावकाचार, 1/5, 22. वही, 12/31-33, 23. चारित्रसार