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________________ अनेकान्त-57/3-4. विधर्मधादि-भेदांश्च निरस्य भावरूपो-विशेषरूप एव पदार्थ इति साधितम्। ..... कस्माद्ग्रन्थविशेषादुद्रतमिति न ज्ञायते तथापि स बौद्धग्रन्थो भवेदिति सम्भाव्यते। -वही, पृ. 9 18. एकादशे नियमोभयाख्यतेऽरे “सर्वोऽपि पदार्थाःक्षणिकाः” इति साधितम्। एवंभूत-नयस्यभेदरूपे ___ उपयोगैवंभूतनये चाऽयं नियमोभयनयोऽन्तर्भवति। -वही, पृ. 9 19. द्वादर्श नियमनियमाख्येऽरे क्षणिकपदार्थवादमपिनिरस्य शून्यवाद प्रसादितः। -वही, पृ. 9 20. सुद्धोअणतणअस्स उ परिसुद्धो पज्जवविअप्पो।। -सन्मति प्रकरण-3/48 अध्यक्ष, जैन दर्शन विभाग श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ (मानित विश्वविद्यालय) नई दिल्ली-110016 बन्धुर्ननः स भगवान् रिपवोऽपिनान्ये, साक्षान्न दृष्टचर एकतमोऽपि चैषाम् । श्रुत्वा वचः सुचरितं च प्रथग् विशेषं, वीरं गुणातिशयलोलतया श्रिताः स्मः।। 'भगवान महावीर हमारे कोई सगे भाई नहीं और न दूसरे कपिल गोतमबुद्धादिक ऋषि हमारे कोई शत्रु ही हैं-हमने तो इनमें से किसी एक को साक्षात् देखा तक नहीं है। हाँ, इनके पृथक्-पृथक् वचनविशेष तथा चरित विशेष को जो सुना है तो ! उससे महावीर में गुणातिशय पाया गया है और उस गुणातिशय ! पर मुग्ध होकर अथवा उसकी प्राप्ति की उत्कट इच्छा से ही हमने महावीर का आश्रय लिया है।' --------------------
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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