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________________ विविध श्रावकाचारों में वर्णित गुरु का स्वरूप, वन्दन एवं उपासनाविधि -डॉ. जयकुमार जैन गुरु का स्वरूप :- गुरु शब्द का वाच्यार्थ है महान्। जो स्वयं मोक्षमार्ग का पथिक है तथा अन्य लोगों को अपने सदुपदेश द्वारा मोक्षमार्ग पर आरूढ़ करता है, वह गुरु कहलाता है। आचार्य वादीभसिंह ने क्षत्रचूडामणि में गुरु का वर्णन करते हुए कहा है 'रत्नत्रयविशुद्धः सन् पात्रस्नेही परार्थकृत्। परिपालितधर्मो हि भवाब्धेस्तारको गुरुः।।। अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से विशुद्ध, सज्जन, सुपात्र शिष्य से स्नेह करने वाला, परोपकारी, धर्म का परिपालन करने वाला गुरु संसार रूपी समुद्र से पार कराने वाला होता है। उन्होंने गुरु के स्नेह को कामनाओं को पूरा करने वाला तथा गर्भाधान मात्र से न्यून माता-पिता कहकर गुरु की महत्ता का प्रतिपादन किया है। भगवती आराधना की विजयोदया टीका में 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैर्गुरुतया गुरवः इत्युच्यन्ते आचार्योपाध्यायसाधवः' कहकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से महान् आचार्य, उपाध्याय और साधु इन तीन परमेष्ठियों को गुरु माना गया है। रत्नकरण्डक श्रावकाचार में श्री समन्तभद्राचार्य ने पाँचों इन्द्रियों के विषयों की आशा से रहित, कृषि, पशुपालन आदि आरंभ से रहित, धन-धान्यादि परिग्रह से रहित, ज्ञान-ध्यान एवं तप किंवा ज्ञानतप और ध्यान तप में लवलीन तपस्वी निर्ग्रन्थ गुरु को प्रशंसनीय कहा है। लाटी संहिता में देव को सच्चा गुरु बताते हुए उनसे नीचे भी जो अल्पज्ञ हैं, किन्तु उसी रूप में दिगम्बरत्व, वीतरागत्व और हितोपदेशित्व को धारण करने वाले को गुरु
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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