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________________ अनेकान्त-57/3-4 करता है- पुनः बारहवें नय की स्थापना को खण्डित करके प्रथम नय अपनी स्थापना करता है इस प्रकार यह विवेचन एक चक्र की भांति अनवरत घूमता हुआ प्रतीत होता है। आचार्य सिद्धसेन ने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों के माध्यम से कई भारतीय दर्शनों को समाहित करने का प्रथम प्रयास किस प्रकार किया है इस बात की चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। अब यहाँ यह देखना है कि आचार्य मल्लवादी ने किन-किन नयों में किन-किन दर्शनों को समाहित किया है। 1. व्यवहार नय : इसके अन्तर्गत नयचक्र का प्रथम आरा विधि प्रस्थान आता है। यहाँ व्यवहार नय के आधार से अज्ञानवाद का उत्थान किया गया है। इस नय का अभिप्राय यह है कि लोक व्यवहार ही प्रमाण है तथा उसी से अपना व्यवहार चलाना चाहिए। लौकिक पुरुष का अर्थ चार्वाक ग्रहण किया जा सकता है। आचार्य मल्लवादी ने पूर्वमीमांसा को भी व्यवहार नय के अन्तर्गत ही ग्रहण किया है।' 2. संग्रह नय : इस नय के अन्तर्गत क्रमशः द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ प्रस्थान अर्थात् विधि-विधि, विध्युभय तथा विधिनियम आते हैं। इसमें आचार्य ने द्वितीय आरे के अन्तर्गत प्रमुख रूप से पुरुषाद्वैतवाद की चर्चा की है। तृतीय आरे के अन्तर्गत सांख्य तथा ईश्वरवाद का प्रमुखता से प्रतिपादन किया है।' चतुर्थ आरे के अन्तर्गत ब्रह्मवाद की चर्चा प्रमुख है। 3. नैगम नय : नैगमय नय के अन्तर्गत पंचम और षष्ठ प्रस्थान अर्थात विधिनियमौ तथा विधि-नियमविधि आरे आते हैं। इसमें आचार्य ने पंचम आरे के अन्तर्गत वैयाकरण दर्शन" तथा षष्ठ आरे के अन्तर्गत वैशेषिक दर्शन का प्रतिपादन किया है। यहां तक के नय तो द्रव्यार्थिक नय माने हैं तथा अब शेष को पर्यायार्थिक नय के अन्तर्गत गिना है।" 4. ऋजुसूत्र नय : ऋजुसूत्र नय के अन्तर्गत सप्तम उभयोभय प्रस्थान आता है। आचार्य ने इसके अन्तर्गत बौद्ध दर्शन के अपोहवाद की चर्चा की है।"
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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