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________________ 14 अनेकान्त-57/3-4 7 नैगमनय 6. विधिनियमविधिः, 7. उभयोभयम्, 8. उभयनियमः, 9. नियमः, 10. नियमविधिः, 11. नियमोभयम्, 12. नियम-नियमः मल्लवादी ने द्वादशार नयचक्र की रचना की तो उन बारह प्रस्थानों का सम्बन्ध उक्त दो नयों के साथ बतलाना आवश्यक था। अतएव आचार्य ने स्पष्ट कर दिया है कि विधि आदि प्रथम के छह प्रस्थान द्रव्यार्थिक नय के अन्तर्गत है और शेष छह प्रस्थान पर्यायार्थिक नय के अन्तर्गत हैं। आचार्य ने प्रसिद्ध नैगमादि सात नयों के साथ भी इन बारह प्रकार के प्रस्थानों का सम्बन्ध बतलाया है वह इस प्रकार है1. विधिः व्यवहारनय 7. उभयोभयम् ऋजुसूत्रनय 2. विधि-विधिः 8. उभयनियमः . शब्दनय 3. विध्युभयम् | संग्रहनय 9. नियमः " 4. विधिनियमः ___10. नियमविधिः समभिरूढनय 5. विधिनियमौ 11. नियमोभयम् 6. विधिनियमविधिः एवंभूतनय 12. नियमनियमः इस प्रकार आचार्य मल्लवादी ने पूर्वकथित द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक इन दो नयों तथा नैगमादि सप्त नयों में बारह प्रस्थानों को गर्भित किया। ___ आचार्य मल्लवादी ने विभिन्न जैनेतर भारतीय दर्शनों का समावेश इन बारह प्रस्थानों में किया है। द्वादशार नयचक्र में उन्होंने चक्र या पहिये को प्रतीक स्वरूप मानकर संपूर्ण विषय वस्तु निरूपित की है। चक्र के आरे एक केन्द्र पर संलग्न होते हैं उसी प्रकार से ये सभी बारह प्रस्थान (बारह आरे) स्याद्वाद या अनेकान्त रूपी केन्द्र पर जुड़े हुये हैं। दो आरों के बीच जो अन्तर होता है उसमें मल्लवादी पूर्व नय तथा तदनुसारी किसी एक दर्शन का भी खण्डन करते हैं। फिर पुनः नये आरे में नये "नय" का तथा नये दर्शन की स्थापना करते हैं। द्वितीय नय प्रथम नय का निरास करके अपनी स्थापना करता है। फिर तृतीय नय का निरास करके चतुर्थ नय अपनी स्थापना करता है और इसी क्रम में ग्यारहवें नय का निरास करके बारहवां नय अपनी स्थापना
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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