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अनेकान्त-57/3-4.
धर्म भावना क्या मात्र भ्रम ही है-अथवा उसमें कोई तथ्य भी हैं, क्या उसके उद्भव का कोई स्रोत अनादिकाल से रहा है-यह खोज का विषय भी बना जिस पर आइंस्टीन के समान माने जाने वाले प्रतिभावान् मनोवैज्ञानिक डॉक्टर फ्रायड ने विशेष कार्य किया। धर्म भावना प्रत्येक मानव में पाई जाती है-एक अनुभूति के रूप में, जो सर्वकालिक, सार्वभौमिक होती है। उस अनुभूति (feeling) होने के मुख्यतः तीन कारण बतलाये जाते हैं, जिन्हें कोई भी प्राचीन सभ्यताएँ या आधुनिक सभ्यता द्वारा निराकरण के अभूतपूर्व प्रयासों के बावजूद सफलताएं केवल सीमित रूप में ही उपलब्ध हुई या होती रही हैं1. प्राकृतिक प्रकोप-अकाल, बाढ़, महामारी आदि। 2. शरीर (काया) का नाशवान् होना। 3. मानवों के बीच सम्बन्ध-युद्ध, हत्याएँ, नरसंहार आदि। __ भूकम्प, बाढ़, अकाल आदि प्राकृतिक प्रकोपों से या अन्य संकटमय परिस्थितियों से सुरक्षा की भावना स्वभावतः मानव को धर्म भावना की ओर ले जाती है, कोई ऐसी शक्ति की उपासना की ओर मन जाता है जो उन्हें संकटों से बचा सके। उसी के रूप को दिनोंदिन परिष्कृत किया जाता रहा और उस शक्ति को, चाहे वह किसी भी नाम से पुकारी जाय, प्रसन्न करने हेतु अनेक प्रकार के त्याग व बलिदान आदि की प्रथाएं चलती गईं। __आज भी विज्ञान के आविष्कारों की चरम सीमाएं देखते हुए कोई नहीं बचा सका शरीर या काया के विनाश को। अतः आत्मा (सत्) के अस्तित्व को मान्यता देकर उसमें अजरता व अमरता की अवधारणा से, कर्मजन्य काया से परे, शुद्ध रूप में उपलब्ध करने, धर्म भावनाएं विकसित हुईं।
इसी प्रकार कषायों या मोह से प्रतिबन्धित मन जो अनेक प्रकार से विकृत तथा विशुद्धि रूप परिणामों से सुकृत हुआ संसार के मानवों के मध्य विभिन्न प्रकार के सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। परतंत्र हुआ मन, स्मृतियों के जाल में अहम, मम तथा रागद्वेष परिणतियों वश अनेक प्रकार के दुष्कर्म करता है, जो सामूहिक रूप में आने पर और भी अधिक भयानक युद्ध, आतंक, संहार आदि कृत्य करते देखे जाते हैं। समाज अपने सामूहिक मन से प्रतिबंधित