________________
अभीक्ष्ण संवेग में जगत् स्वरूप का चिन्तन
-प्रोफेसर लक्ष्मीचन्द्र जैन तत्त्वार्थ सूत्र में संवेग एवं जगत् स्वरूप के सन्दर्भ में मुख्यतः उल्लेख निम्न प्रकार है
दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नताशीलव्रतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्याग-तपसी साधुसमाधि यावृत्यकरणमर्ह दचार्यबहुश्रुत प्रवचनभक्तिरावश्यक परिहाणिमार्गप्रभावनाप्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थंकरत्वस्य।
-6/24
(2)
जगत्कायस्वभावौ वा संवेग वैराग्यार्थम
- 7/12 प्रथम सूत्र तीर्थंकर पदवी को इंगित करता है, द्वितीय ज्ञेय के समग्र को संवेग से जोड़ता है। अहिंसा अथवा राग द्वेष की समाप्ति की पराकाष्ठा तक ले जाता प्रतीत होता है। ___ इस प्रकार उपरोक्त विषय में जहां एक ओर आधुनिक मनोविज्ञान में संवेग की अवधारणा में नये रहस्य का हम उद्घाटन कर रहे होते हैं, वहीं खगोल विज्ञान के क्षेत्र में जगत् के समग्र स्वरूप का ज्ञेय रूप में श्रुत केवल ज्ञान की साक्षी में आगे बढ़ते हैं। निश्चित रूप से हमें उस दिशा में इस दार्शनिक चिन्तन को ले जाना होता है, जिस ओर नोबेल पुरस्कृत बरट्रेंड रसैल ने यूनानियों में गणितीय दर्शन का विश्व में प्रथम बार अवलोकन कर उसे अपनी अद्वितीय प्रतिभा में प्रिंसिपिया मेथामेटिका में विस्तार रूप से प्रस्तुत किया था।