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अनेकान्त-57/3-4
छहढाला के पाठक इस पर विचार करें कि-'सकल द्रव्य के गुण अनन्त पर्याय अनन्ता' को प्रकाशित करने वाला निश्चय ज्ञान क्या छद्मस्थ को हो सकता है? यदि कहा जाये कि इनका अंशज्ञान तो हो सकता है, तो वह अंशज्ञान नयाधीन है प्रत्यक्ष नहीं है। यदि व्यवहार नय मिथ्या होता तो केवली भगवान के भी मिथ्यात्व का प्रसंग उत्पन्न हो जाता क्योंकि
जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणयेण केवली भगवं। केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।। -(नियमसार-154)
जब केवली भगवान स्वयं व्यवहार से जानते देखते हैं तब व्यवहार नय कैसे मिथ्या हो सकता है?
वीर सेवा मंदिर के संस्थापक श्री जुगलकिशोर जी मुख्तार द्वारा 1954 में की गई सम्भावना अब यथार्थ रूप धारण कर चुकी है। उन्होंने कहा था-"आप (कहान जी) वास्तव में कुन्दकुन्दाचार्य को नहीं मानते और न स्वामी समन्तभद्र जैसे दूसरे महान जैनाचार्यों को ही वस्तुतः मान्य करते हैं। क्योंकि उनमें से कोई भी आचार्य निश्चय व्यवहार दोनों में से किसी एक ही नय के पक्षपाती नहीं हुए हैं; बल्कि दोनों नयों का परस्पर सापेक्ष, अविनाभव सम्बन्ध को लिए हुए एक-दूसरे के मित्र के रूप में मानते और प्रतिपादन करते आए हैं। -(अनेकान्त/जुलाई/954, पृ.-8)
कुछ मिथ्याधारणा वाले चारित्र की उपेक्षा कर मात्र दर्शन के ही गुणगान को प्रमुखता देने में लगे हैं। जबकि कुन्दकुन्दाचार्य का स्वयं का कथन है
दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहणा णिच्वं।
ताणि पुण जाणि तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो।। ___ अतः दर्शन ज्ञान चारित्र तीनों की प्रमुखता में व्यवहार चारित्र को दिखावा मात्र कहकर उसकी उपेक्षा करना शोचनीय और दिगम्बरत्वघातक है। आचार्य कुन्दकुन्द ने 'चारित्तं खलु धम्मो' की स्पष्ट घोषणा की है और चारित्र में व्यवहार निश्चय दोनों ही चारित्र गर्भित हैं।
-वीर सेवा मंदिर 21/4674 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-2