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अनेकान्त-57/1-2
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संख्या इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार में 12 हजार श्लोक परिमाण बतलाई है।
इस प्रकार संक्षेप में यह दो सिद्धान्तागमों के अवतार की कथा है, जिनके आधार पर फिर कितने ही ग्रंथों की रचना हुई है। इसमें इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार से अनेक अंशों में कितनी ही विशेषता और विभिन्नता पाई जाती है, जिसकी कुछ मुख्य मुख्य बातों का दिग्दर्शन, तुलनात्मक दृष्टि से, इस लेख के फुटनोटों में कराया गया है। ___ यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि धवला और जयधवला में गौतमस्वामी से आचारांगधारी लोहाचार्य तक के श्रुतधर आचार्यो की एकत्र गणना करके और उनकी रूढ़ काल-गणना 683 वर्ष की देकर उसके बाद धरसेन और गुणधर आचार्यों का नामोल्लेख किया गया है, साथ में इनकी गुरुपरम्परा का कोई खास उल्लेख नहीं किया गया 29 और इस तरह इन दोनों आचार्यों का समय वीर-निर्वाण से 683 वर्ष बाद का सूचित किया है। यह सूचना ऐतिहासिक दृष्टि से कहाँ तक ठीक है अथवा क्या कुछ आपत्ति के योग्य है उसके विचार का यहाँ अवसर नहीं है। फिर भी इतना जरूर कह देना होगा कि मूल सूत्र ग्रंथों को देखते हुए टीकाकार का यह सूचन कुछ त्रुटिपूर्ण अवश्य जान पड़ता है, जिसका स्पष्टीकरण फिर किसी समय किया जाएगा।
___ भाषा और साहित्य-विन्यास दोनों मूल सूत्रग्रंथों-षट्खण्डागम और कषायप्राभृत की भाषा सामान्यतः प्राकृत और विशेषरूप से जैन शौरसेनी है तथा श्रीकुन्दकुन्दाचार्य के ग्रंथों की भाषा से मिलती-जुलती है। षट्खण्डागम की रचना प्रायः गद्य सूत्रों में ही हुई है। परन्तु कहीं कहीं गाथा सूत्रों का भी प्रयोग किया गया है; जब कि कषायप्राभृत की संपूर्ण रचना गाथा-सूत्रों में ही हुई है। ये गाथा-सूत्र बहुत संक्षिप्त हैं और अधिक अर्थ के संसूचन को लिये हुए हैं। इसी से उनकी कुल संख्या 233 होते हुए भी इन पर 60 हजार श्लोक-परिमाण टीका लिखी गई है।
धवल और जयधवल की भाषा उक्त प्राकृत भाषा के अतिरिक्त संस्कृत भाषा भी है-दोनों मिश्रित हैं-दोनों में संस्कृत का परिमाण अधिक है। और