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________________ 126 अनेकान्त-57/1-2 दोनों में ही उभय भाषा में 'उक्तं च' रूप से पद्य, गाथाएँ तथा गद्य-वाक्य उद्धृत हैं- कहीं नाम के साथ और अधिकांश बिना नाम के ही। ऐसी गाथाएँ बहुत सी 'अ' रूप से उद्धृत हैं जो ‘गोम्मटसार' में प्रायः ज्यों की त्यों तथा कहीं कहीं कुछ थोड़े से पाठ-भेद के साथ उपलब्ध होती हैं और चूंकि गोम्मटसार धवलादिक से बहुत बाद की कृति है इसलिये वे गाथाएँ इस बात को सूचित करती हैं कि धवलादि की रचना से पहले कोई दूसरा महत्व का सिद्धान्त ग्रंथ भी मौजूद था जो इस समय अनुपलब्ध अथवा अप्रसिद्ध जान पड़ता है। सन्दर्भ 1. ब्रह्म हेमचन्द्र ने 'श्रुतस्कन्ध' में धवल का परिमाण जब 70 हजार श्लोक जितना दिया है, जब इन्द्रनन्दि आचार्य ने अपने 'श्रुतावतार' में उसे 'ग्रन्थसहनैर्द्विसप्तत्या' पद के द्वारा 72 हजार सूचित किया है। 2. देखो, 'जैनसिद्धान्तभास्कर' के पांचवें भाग की तृतीय किरण में प्रकाशित सोनीजी का 'षड्खण्डागम और भ्रमनिवारण' शीर्षक लेख । आगे भी सोनीजी के मन्तव्यों का इसी लेख के आधार पर उल्लेख किया गया है। 3. देखो, आरा जैन सिद्धान्तभवन की 'धवल' प्रति, पत्र 552 । 4 जैसा कि उसके निम्न वाक्य से प्रकट है "तेण बंधणिज्जपरूपवणे कीरमाणे वग्गणपरूवणा णिच्छएणकायव्वा। अण्णहा तेवीस वग्गणा सुइया चेव वग्गणा बधपाओगा अण्णा जो बंधपाओगा ण होतिअत्तिगमाणु वपत्तीदो।" 5. देखो, आरा-जैनसिद्धान्तभवन की 'धवल' प्रति पत्र 532 । 6. देखो, आरा-जैनसिद्धान्तभवन की 'धवल' प्रति पत्र 371 7. देखो, आरा-जैनसिद्धान्तभवन की 'धवल' प्रति पत्र 341 । 8. धवल के 'वेदना' खण्ड में भी लोहाचार्य का नाम दिया है। इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार में इस स्थान पर सुधर्म मुनि का नाम पाया जाता है। 9, 10, 11. इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार में जयसेन, नागसेन, विजयसेन, ऐसे पूरे नाम दिये हैं। जयधवला में भी जयसेन, नागसेन-रूप से उल्लेख है परन्तु साथ में विजय को विजयसेन-रूप से उल्लेखित नहीं किया। इससे मूल नामों में कोई अन्तर नहीं पड़ता। 12. यहाँ पर यद्यपि द्रुमसेन (दुमसेणो) नाम दिया है परन्तु इसी ग्रंथ के 'वेदना' खड में और
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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