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अनेकान्त-57/1-2
लोहज्ज-जंबुसामियादि आइरिय परंपराए आगंतूण गुणहराइरियं पाविय...
(आरा की प्रति पत्र 313) जब धवला और जयधवला दोनों ग्रंथों के रचयिता वीरसेनाचार्य ने एक ही व्यक्ति के लिये इन दो नामों का स्वतंत्रतापूर्वक उल्लेख किया है, तब ये दोनों एक ही व्यक्ति के नामान्तर हैं ऐसा समझना चाहिये; परन्तु, जहाँ तक मुझे मालूम है, इसका समर्थन अन्यत्र से अथवा किसी दूसरे पुष्ट प्रमाण से अभी तक नहीं होता-पूर्ववर्ती ग्रंथ 'तिलोयपण्णत्ती' में भी 'सुधर्मस्वामी' नाम का उल्लेख है। अस्तु; जयधवला पर से शेष कथा की उपलब्धि निम्न प्रकार होती है :___ आचारांग-धारी लोहाचार्य का स्वर्गवास होने पर सर्व अंगों तथा पूर्वो का जो एकदेशश्रुत आचार्य परम्परा से चला आया था वह गुणधराचार्य को प्राप्त हुआ। गुणधराचार्य उस समय पाँचवे ज्ञानप्रवाद-पूर्वस्थित दशम वस्तु के तीसरे 'कसायपाहुड' नामक ग्रन्थ-महार्णव के पारगामी थे। उन्होंने ग्रंथ-व्युच्छेद के भय से और प्रवचन वात्सल्य से प्रेरित होकर सोलह हजार पद परिमाण उस 'पेज्जदोसपाहुड' ('कसायपाहुड') का 180 27 सूत्र गाथाओं में उपसंहार किया-सार खींचा। साथ ही, इन गाथाओं के सम्बन्ध तथा कुछ वृत्ति-आदि की सूचक 53 विवरण-गाथाएँ भी और रची, जिससे गाथाओं की कुल संख्या 233 हो गई। इसके बाद ये सूत्र-गाथाएँ आचार्य परम्परा से चलकर आर्यमंक्षु और नागहस्ती नाम के आचार्यों को प्राप्त हुई। 28 इन दोनों आचार्यों के पास से गुणधराचार्य की उक्त गाथाओं के अर्थ को भले प्रकार सुनकर यतिवृषभाचार्य ने उन पर चूर्णि-सूत्रों की रचना की, जिनकी संख्या छह हजार श्लोक-परिमाण है। इन चूर्णि-सूत्रों को साथ में लेकर ही जयधवला-टीका की रचना हुई है, जिसके प्रारम्भ का एक तिहाई भाग (20 हजार श्लोक-परिमाण) वीरसेनाचार्य का और शेष (40 हजार श्लोक-परिमाण) उनके शिष्य जिनसेनाचार्य का लिखा हुआ है।
जयधवला में चूर्णि सूत्रों पर लिखे हुए उच्चारणाचार्य के वृत्ति सूत्रों का भी कितना ही उल्लेख पाया जाता है परन्तु उन्हें टीका का मुख्याधार नहीं बनाया गया है और न सम्पूर्ण वृत्ति-सूत्रों को उद्धृत ही किया जान पड़ता है, जिनकी