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अनेकान्त-57/1-2
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ग्रहण-धारण में समर्थ थे, बहुविध निर्मल विनय से विभूषित तथा शील-माला के धारक थे, गुरु-सेवा में सन्तुष्ट रहने वाले थे, देश कुल-जाति से शुद्ध थे
और सकल-कला-पारागामी एवं तीक्ष्ण-बुद्धि के धारक आचार्य थे- आन्ध्र देश के वेण्यातट” नगर से धरसेनाचार्य के पास भेजा। (अंधवि-सयवेण्णायडादो पेसिदा)। वे दोनों साधु जब आ रहे थे तब रात्रि के पिछले भाग में धरसेन भट्टारक ने स्वप्न में सर्व-लक्षण सम्पन्न दो धवल वृषभों को अपने चरणों में पड़ते हुए देखा। इस प्रकार सन्तुष्ट हुए धरसेनाचार्य ने 'जयतु श्रुतदेवता' 18 ऐसा कहा। उसी दिन वे दोनों साधुजन धरसेनाचार्य के पास पहुंच गये और तब भगवान् धरसेन का कृतिकर्म (वन्दनादि) करके उन्होंने दो दिन विश्राम किया, फिर तीसरे दिन विनय के साथ धरसेन भट्टारक को यह बतलाया कि 'हम दोनों जन अमुक कार्य के लिये आपकी चरण-शरण में आए हैं।' इस पर धरसेन भट्रारक ने 'सुष्ठु भद्रं' ऐसा कहकर उन दोनों को आश्वासन दिया और फिर वे इस प्रकार चिन्तन करने लगे
“सेलघण-भग्गघड-अहि-चालणि-महिसाऽवि-जा-हयसुएहि।" 20
मट्टिय-मसयसमाणं वक्खाणइ जो सुदं मोहा।।1।। दुध (?) गारवपडिवद्धो विसयामिसविसवसेण घुम्मंतो।
सो णट्ठबोहिलाहो भमइ चिरं भववणे मूढो।। 2 ।।
इस वचन से स्वच्छन्दचारियों को विद्या देना संसार-भय का बढ़ाने वाला है। ऐसा चिन्तन कर, शुभ-स्वप्न के दर्शन से ही पुरुष में भेद को जानने वाले धरसेनाचार्य ने फिर भी उनकी परीक्षा करना अंगीकार किया। सुपरीक्षा ही निःसन्देह हृदय को मुक्ति दिलाती है। तब धरसेन ने उन्हें दो विद्याएँ दींजिनमे एक अधिकाक्षरी, दूसरी हीनाक्षरी थी-और कहा कि इन्हें षष्ठोपवास के साथ साधन करो। इसके बाद विद्या सिद्ध करके जब वे विद्यादेवताओं को देखने लगे तो उन्हें मालूम हुआ कि एकका दाँत बाहर को बढ़ा हुआ है और दूसरी कानी (एकाक्षिणी) है। देवताओं का ऐसा स्वभाव नहीं होता यह विचार कर जब उन मंत्र-व्याकरण में निपुण मुनियों ने हीनाधिक अक्षरों का क्षेपण-अपनयन