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अनेकान्त-57/1-2
किया गया है। चैतन्यस्वभाव की प्राप्ति विशिष्ट पुण्यशाली को ही होती है। निकटभव्य चैतन्य स्वभाव की आकांक्षा रखने वाला प्राणी वीतराग सर्वज्ञ की सच्ची श्रद्धा करने वाला होता है और वही स्वानुभव से परिपूर्ण होता है
त्वमेक एवैक रसस्वभावः सुनिर्भरः स्वानुभवेन कामम्। अखण्डचित्पिण्डविपिण्डितश्रीविगाहसे सैन्धवखिल्यलीलाम्।।13/9 लघु.
जो एक ज्ञायक स्वभाव से सहित है, जो स्वानुभव से यथेच्छ परिपूर्ण है और जिनकी आभ्यन्तर लक्ष्मी अखण्ड चैतन्य के पिण्ड के सहित है ऐसे एक आप ही नमक ही डली की लीला को प्राप्त हो रहे हैं।
यहाँ आचार्य श्री ने शुद्धात्मा अरिहन्त भगवान् के स्तवन के द्वारा शुद्धस्वरूप का प्रतिपादन किया है। आत्मा का प्रत्येक प्रदेश ज्ञायकस्वभाव से परिपूर्ण होता है तभी पूर्ण रूप से शुद्धात्मा का अनुभव संभव है। जहाँ रागभाव है वहाँ शुद्धात्मा का अनुभव असंभव है जिस प्रकार नमक की डली का एक-एक कण क्षार रस से व्याप्त है, उसी प्रकार शुद्धात्मा का एक-एक प्रदेश ज्ञायक स्वभाव से परिपूर्ण है। जब क्षायोपशमिक ज्ञान चारित्रमोह जनित राग से सहित होता है, तब वह नाना ज्ञेयों में संलग्न रहता है किन्तु जब वह राग से रहित हो जाता है तब स्वरूप में स्थिर होता है।
राग से रहित पूर्ण वीतरागदशा को प्राप्त क्षायिकज्ञानी ही यथेच्छ स्वानुभव से परिपूर्ण है, उनकी स्तुति में जैसा आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रतिपादित किया है
विशुद्धचित्पूरपरिप्लुतस्त्वमार्द्रि एव स्वरसेन भासि। प्रालेयपिण्डः परितो विभाति सदाई एवाद्रवतायुतोऽपि ।। 14/9 लघु. विशुद्ध चैतन्य के पूर में सब ओर से डूबे हुए आप आत्मरस से अत्यन्त आर्द्र ही सुशोभित हो रहे हैं क्योंकि बर्फ का पिण्ड घन रूपता से युक्त होने पर भी सर्वदा सब ओर से आर्द्र ही प्रतीत होता है। अर्थात् जिस प्रकार बर्फ का पिण्ड यद्यपि द्रवता-तरलता से युक्त नहीं है किन्तु जमकर शिला के समान अद्रव्यरूप हो गया है तथापि वह सदा आर्द्र ही रहता है, उसमें से पानी झरता हुआ मालूम होता है, उसी प्रकार विशुद्ध चैतन्य के पूर से प्लावित रहने वाले