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________________ अनेकान्त-57/1-2 शुद्धात्मा के अनुभावक एक मात्र ज्ञायकस्वभाव से परिपूर्ण होते हैं। . अरिहन्त या क्षायिक ज्ञान के धारक आत्मा के पारदर्शी होते हैं यदि ऐसा नहीं होता तो वे स्वानुभाव से रहित होते तथा चैतन्य रूप वस्तु की महिमा में इच्छा को नहीं छोड़ते अर्थात् इच्छारहित आत्मदर्शी को स्वानुभवकर्ता स्वीकार किया गया है। इसी परम्परा का आश्रय लेकर कहा गया है अखण्डितः स्वानुभवस्तवायं समग्रपिण्डीकृतबोधसारः। ददाति नैवान्तरयुद्धतायाः समन्ततो ज्ञानपरम्परायाः।। 16/1 लघु. हे भगवन् ! जिसमें ज्ञान का सार सम्पूर्ण रूप से एकत्र समाविष्ट किया गया है, ऐसा यह आपका कभी न खण्डित होने वाला स्वानुभव सब ओर से बहुत भारी ज्ञान की परम्परा को अवकाश नहीं देता है। इसका भाव यह है कि ज्ञान का फल स्वानुभूति है। जब स्वानुभव होता है तब विकल्पात्मक ज्ञान की परम्परा स्वयं समाप्त हो जाती है। स्वानुभव काल में ज्ञान और ज्ञेय का विकल्प समाप्त हो जाता है। इस कथन से स्पष्ट है कि छद्मस्थ को शुद्धात्मा का पूर्ण अनुभव करना शक्य नहीं है। अतः मिथ्या प्रलाप न तो करना चाहिए और न सुनना चाहिए कि अविरत सम्यग्दृष्टि, शुद्धात्मा का अनुभव कर सकता है और इस पञ्चम काल में भी उसके अनुभव करने वाले हैं। पञ्चम काल का कोई भी व्यक्ति ज्ञान और ज्ञेय के विकल्प से दूर नहीं रह सकता अतः वास्तविक रूप से क्षायिक ज्ञानी को ही पूर्णज्ञानी और निरन्तर स्वानुभूति कर्ता मानना चाहिए इसीलिए नवीं स्तुति में कहा गया हैनिषीदतस्ते स्वमहिम्न्यनन्ते निरन्तर प्रस्फुरितानुभूतिः। स्फुटः सदोदेत्ययमेक एव विश्रान्त विश्वोमिभरः स्वभावः।। 17/1लघु. अन्तरहित स्वकीय आत्मा की महिमा में स्थित रहने वाले आपका यह एक ही स्वभाव सदा उदित रहता है, जो निरन्तर प्रकट हुई स्वानुभूति से रहित है स्पष्ट है और जिसमें समस्त तरङ्गो का समूह ज्ञानसन्ततियां विकल्पों का जाल विशान्त हो जाता है-शान्त हो जाता है।
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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