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अनेकान्त-57/1-2
पूर्ण दर्शन और ज्ञान की सामर्थ्य से जिन्होंने सबको गृहीत कर लिया है - एक साथ समस्त पदार्थो को जान लिया है इसलिए जो निरन्तर आकुलता से रहित स्थित हैं ऐसे आप नियम से सुख सम्पन्न हैं ।
जैन सिद्धान्तों की मीमांसा आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी सहजरूप से करते बढ़ते हैं इसीलिए वे ज्ञानधारा की क्रमवर्ती और अक्रमवर्ती परिणति का व्याख्यान सरल शब्दों में करते हुए कहते हैं
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अक्रमात्क्रमयाक्रम्य कर्षन्त्यपि परात्यनोः ।
अनन्ताबोधधारेयं क्रमेण तवकृष्यते । 112 / 7 लघु.
हे भगवन्! आपकी स्व-पर विषयक यह अनन्त ज्ञानधारा क्रम को उल्लंघन कर अक्रम से खींचती हुई भी क्रम से खींची जा रही है अर्थात् निज-पर को जानने वाली ज्ञान की धारा छद्मस्थ अवस्था में पदार्थो को क्रम से जानती है। किन्तु सर्वज्ञदशा में वह क्रम को छोड़कर अक्रम - एक साथ जानने लगी है। इस प्रकार वह स्वभाव की अपेक्षा अक्रमवर्ती है तथापि ज्ञेयों की अपेक्षा क्रमवर्ती है ।
आत्मा अनेक भवों में पृथक् पृथक् शरीर धारण करती है, उन पर्यायों की विवक्षा से अनेक रूप है उन पर्यायों में जो ज्ञानादिक गुण साथ साथ रहे हैं, उन गुणों की अपेक्षा एक रूप है। पर्यायों की अपेक्षा अनेक और गुणों की अपेक्षा एकत्व के निरूपण के साथ क्रमवर्ती और अक्रमवर्ती पर्यायों का सार्थक कथन करते हैं- हे जिनेन्द्र ! इस प्रकार क्रमवर्ती और अक्रमवर्ती विवर्तो से सुरक्षित चैतन्यमात्र ही आपका स्वरूप है, ऐसा नहीं समझने वाले अज्ञानी जन इस संसार में व्यर्थ ही दोनों पक्षों का अत्यधिक आग्रह के प्रसार से भ्रमण करते रहते हैं । यह जानकर इस समय हृदय विदीर्ण सा हो रहा है।' पीछे यहाँ पं. ज्ञानचन्द्र जैन जयपुर ने टिप्पणी दी है - " आत्मा क्रमवर्ती पर्यायों की अनित्यता तथा अक्रमवर्ती गुणों की नित्यता वाला है दोनों में किसी का भी विशेष आग्रह व्यक्ति की दुर्गति का कारण होता है। यह टिप्पणी विचारणीय है । यहॉ पर्यायों की क्रमवर्तिता और अक्रमवर्तिता न मानना ही चिन्तनीय है ।
चैतन्य स्वभाव की महिमा का व्याख्यान लघुतत्त्वस्फोट में विशेष रूप से