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________________ अनेकान्त-57/1-2 7 हैं और वे सर्वज्ञ हो जाते हैं । इसमें अध्यात्म की वर्षा हो रही है । ब्याजस्तुति स्तुत्य है । द्वितीय स्तुति से पच्चीसवीं स्तुति पर्यन्त सामान्य रूप से स्तुतियां की गई हैं। किसी विशेष नाम की विवक्षा नहीं रखी गई और प्रत्येक स्तुति किसी विशेष सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए जिनेन्द्र स्तवन रूप में की गई है। आत्मा के दर्शन ज्ञान गुण शाश्वत हैं इनमें दर्शन निर्विकल्प घटपटादि के विकल्प से रहित और ज्ञान सविकल्प - घटपटादि के विकल्प से सहित माना गया है ज्ञान और दर्शन क्षायोपशमिक और क्षायिक के भेद से दो रूप होता है । क्षायोपशमिक दशा में दर्शन और ज्ञान क्रमवर्ती होने से पूर्ण निर्मल नहीं होते हैं क्षायिक दर्शन और ज्ञान केवलदर्शन और केवलज्ञान अक्रमवर्ती होने से पूर्ण विशद हैं। इसी सिद्धान्त की स्तुति करते हुए उपस्थित किया है— हे जिनेन्द्र ! जो मनुष्य विकल्प रहित और विकल्प सहित निर्मल दर्शन और ज्ञान रूप आपके इस तेज की श्रद्धा करते हैं वे समस्त लोक - अलोक रूप विश्व का स्पर्श करते हुए शुद्ध आत्मा को प्राप्त होते हैं । ' ग्यारहवीं स्तुति में आत्मा के दर्शन ज्ञान गुण का वैशिष्ट्य बतलाते हुए जिनेन्द्र स्तवन है । स्तुतिकार आचार्य श्री अमृतचन्द्र सूरि कहते हैं कि हे भगवन् ! मिथ्यात्व रूपी रात्रि को नष्ट करने की सामर्थ्य आप में ही है । जिनेन्द्र भगवान का उपदेश यही है कि मिथ्यात्वदशा में अज्ञानवश बांधे हुए अशुभ कर्मो की अनुभाग शक्ति, सम्यक्त्व के होते ही क्षीण हो जाती है, शुभ कर्मो की अनुभाग शक्ति बढ़ जाती है और सत्ता स्थित कर्मो की निर्जरा होने लगती है । एक साथ ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग प्रकट होने पर अनन्त बल तो प्रकट होता ही है साथ में पूर्ण सुखसम्पन्नता होती है । केवली भगवान् के ज्ञानावरण और दर्शनावरण का सर्वथा उच्छेद होने से एक साथ उभयोपयोग की प्रकटता है अतः पूर्ण सुखी हैं जैसा कि ग्यारहवीं स्तुति में लिखा है अखण्डदर्शन ज्ञान प्राग्लभ्यग्लापिताऽखिलः । अनाकुलः सदा तिष्ठेन्नोकन्तेन सुखी भवेत् । 112 // लघु
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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