SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त-57/1-2 101 कपा है या सब जीवों पर अनुग्रह करना अनुकम्पा है अथवा मैत्रीभाव का नाम अनुकम्पा है। माध्यस्थ्य भाव का नाम अनुकम्पा है या शत्रुता त्याग कर देने से शल्यहित हो जाना अनुकम्पा है। इसका कारण केवल दर्शनमोहनीय का अनुदय है; क्योंकि मिथ्याज्ञान के बिना किसी जीव में वैरभाव नहीं होता है। पर के निमित्त से अपने लिए या अपने निमित्त से अन्य प्राणियों के लिए थोड़े भी सुख दुःखादि या मरण और जीवन की चाह कला मिथ्याज्ञान है और जिसके यह अज्ञान होता है, वही मिथ्यादृष्टि है और वह शल्य वाला है। वह अज्ञानवश दूसरे को मारना चाहता है, पर मार नहीं सकता। सब प्राणियों में जो समभाव धारण किया जाता है, वह परानुकम्पा है और काँटे के समान शल्य का त्याग कर देना वास्तव में स्वानुकम्पा है। रागादि अशुद्ध भावों के सदभाव में बंध ही होता है और उनके अभाव में बन्ध नहीं होता, इसीलिए अपने ऊपर ऐसी कृपा करनी चाहिए, जिससे रागदि भाव न हो।' __किसी वृषादि दुःख से पीड़ित प्राणी को देखकर करुणा के कारण उसका प्रतीकार करने की इच्छा से चित्त में आकुलता होना, वह अज्ञानी की अनुकम्पा है। ज्ञानी की अनुकम्पा तो निचली भूमिका में विहरते हुए (स्वयं निचले गुणस्थानों में वर्तता हो तब) जन्मार्णव में निमग्न जगत् के अवलोकन से (अर्थात् संसार महासागर में डूबे हुए जगत् को देखने से) मन में किञ्चित खेद होना, वह है। ___ आचार्य जयसेन का कहना है कि तीव्र तृषा, तीव्र क्षुधा, तीव्र रोग आदि से पीड़ित प्राणी को देखकर अज्ञानी जीव 'किसी भी प्रकार मैं इसका प्रतीकार करूँ' इस प्रकार व्याकुल होकर अनुकम्पा करता है, ज्ञानी तो स्वात्मभावना को प्राप्त करता हुआ (अर्थात् निजात्मा को अनुभव की उपलब्धि न होती हो तब) संक्लेश के परित्याग द्वारा (अशुभ भाव को छोड़कर) यथासम्भव प्रतीकार करता है तथा उसे दुःखी देखकर विशेष संवेग और वैराग्य भावना करता है।' आस्तिक्य - स्वतः सिद्ध तत्त्वों के सद्भाव में निश्चय भाव रखना तथा धर्म, धर्म के हेतु और धर्म के फल में आत्मा की अस्ति आदि बुद्धि का होना आस्तिक्य है। जो स्वतः सिद्ध है, अमूर्त है और चेतन है, वह आत्मा है।
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy