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अनेकान्त-57/1-2
इसका दूसरा नाम जीव है तथा इसके सिवाय जितना भी पदार्थ है, वह सब अजीव है। आत्मा अनादि काल से कार्माण वर्गणा रूप कर्मो से बँधा हुआ है और अपने को उन्हीं का कर्ता व भोक्ता मान रहा है। जब इनका क्षय कर देता है, तब मुक्त हो जाता है। उस संसारी जीव के पुण्य; पाप, इनका कारण, इनका फल और आस्रव सदैव बने रहते हैं। इस प्रकार पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा बन्ध भी है और मोक्ष भी है और उसका फल भी है। शुद्ध नय की अपेक्षा सभी जीव सदा शुद्ध हैं। उनमें एक जीव ही ऐसा है, जो स्वसंवेद्य चिदात्मक और सोहम् प्रत्ययवेद्य होने से उपादेय है, बाकी जितने भी रागादिभाव हैं, वे सब हेय हैं, क्योंकि वे पौद्गलिक हैं। इस प्रकार अनादि काल से चला आया और समस्त जीवादि वस्तु समुदाय निश्चय और व्यवहार नय से जो जैसा माना गया है, वह वैसा ही है, ऐसी बुद्धि का होना आस्तिक्य है। ___ जो सम्यक्त्व का अविनभावी है और जिसका स्वानुभूति एक लक्षण है, वह सम्यक् आस्तिक्य है और इससे विपरीत मिथ्या आस्तिक्य है।
शङ्का - वास्तव में एक केवलज्ञान ही प्रत्यक्ष है। बाकी के चारों ज्ञान कभी भी प्रत्यक्ष नहीं है। अथवा अपने आत्मा के सुखादिक की तरह इन्द्रियजन्य ज्ञान एकदेश प्रत्यक्ष है, इसलिए आस्तिक्यभाव स्वसंवेदन प्रत्यक्ष का विषय कैसे हो जाता है?
समाधान - यह कहना ठीक है तथापि आदि के दो ज्ञान पर पदार्थो का ज्ञान करते समय यद्यपि परोक्ष हैं, तथापि दर्शनमोहनीय के उपशम आदि के कारण स्वानुभव के कारण यद्यपि परोक्ष है तथापि दर्शमोहनीय के उपशम आदि के कारण स्वानुभव के समय वे प्रत्यक्ष ही हैं। प्रकृत में अपने आत्मा की अनुभूति ही आस्तिक्य नाम का परमगुण माना गया है फिर चाहे परद्रव्य का ज्ञान हो, चाहे मत हो; क्योंकि परपदार्थ पर हैं। दूसरे यद्यपि जीवादि पदार्थ परोक्ष है, तथापि इस सम्यग्दृष्टि जीव को जैसी उनकी गाढ़ प्रतीति होती है, वैसी उनकी-स्पष्ट प्रतीति मिथ्यादृष्टि के भी नहीं होती; क्योंकि दर्शनमोहनीय के उदय से उसके निरन्तर भ्रान्ति बनी रहती है। इसलिए युक्ति, स्वानुभव और आगम से भली भाँति सिद्ध होता है कि सम्यकत्व के साथ अविनाभाव