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________________ सराग और वीतराग सम्यग्दर्शन ___ - डॉ. रमेश चन्द जैन सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है- सराग सम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यग्दर्शन। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि की अभिव्यक्ति लक्षण वाला सराग सम्यग्दर्शन है और आत्मा की विशुद्धि मात्र वीतराग सम्यग्दर्शन है।' प्रशम- पञ्चेन्द्रियों के विषय में और असंख्यात लोक प्रमाण क्रोधादिक भावों में स्वभाव से मन का शिथिल होना प्रशम भाव है अथवा उसी समय अपराध करने वाले जीवों के विषय में कभी भी उनके करने आदि की प्रयोजन बुद्धि का नहीं होना प्रशम भाव है। इस प्रशमभाव के होने में अनन्तानुबन्धियों का उदयाभाव और शेष कषायों का अंश रूप में मन्दोदय कारण है। यद्यपि प्रशम भाव से युक्त सम्यग्दृष्टि जीव दैव वश बिना इच्छा के आरम्भ आदि क्रिया करता है, तथापि अन्तरङ्ग में शुद्धता होने से वह क्रिया उसके नाश का कारण नहीं हो सकती। सम्यक्त्व के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाला जो प्रशम भाव है, वह परमगुण है और सम्यक्त्व के अभाव में जो प्रशमगुण होता है, वह प्रशमाभास है। संवेग- धर्म और धर्म के फल में आत्मा का परम उत्साह होना या समान धर्म वालों में अनुराग का होना या परमेष्ठियों में प्रीति का होना संवेग है। सम्यक्त्व मात्र या शुद्ध आत्मा का अनुभव ही धर्म है और अतीन्द्रिय, अविनाशी क्षायिक सुख ही उसका फल है। समान धर्म वालों में और पाँच परमेष्ठियों में जो अनुराग हो वह उनके गुणों में अनुरागवृद्धि से ही होना चाहिए। किन्तु जो समान धर्म वालों या पॉच परमेष्ठियों के गुणों से रहित है उनमें इन समान होने की लिप्सा के बिना भी अनुराग नहीं होना चाहिए। प्रकृत में अनुराग शब्द का अर्थ अभिलाषा नहीं कहा गया है किन्तु अधर्म और अधर्म के फल से निवृत्त होकर जो शेष रहता है, वही अनुराग शब्द का अर्थ है अथवा जिस समय
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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