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________________ अनेकान्त-56/1-2 की स्थापना होता है। इनसे सम्बद्ध सभी ग्रन्थों को जैन-परम्परा मान्य चार अनुगोगो मे प्रथम "प्रथमानुयोग" के अन्तर्गत समाविष्ट किया जाता है इसलिए आचार्य जिनसेन ने अपने आदिपुराण (2/38) में पुराण की परिभाषा करते हुए कहा है- “स च धर्मः पुराणार्थः पुराणं पञ्चधा विदुः। क्षेत्रं कालश्च तीर्थ च सत्पंसस्तद्विचेष्टितम्। अर्थात् जिसमें क्षेत्र, काल, तीर्थ, सत्पुरुष एवं सत्पुरुषो की चेष्टायें वर्णित हो, वह पुराण है। आ. जिनसेन ने पुराण के वर्ण्य विषय के अतर्गत इन पाँच विषयों को और आगे बढ़ाते हुए पौराणिक कथा के सात अग बतलाये है-द्रव्य, क्षेत्र, तीर्थ, काल, भाव, महाफल और प्रकृत (वर्णनीय कथावस्तु)। ये परिभाषायें यद्यपि पद्मपुराण के बाद की हैं, किन्तु इस परिभाषा की कसौटी पर भी आ. रविषेणकृत पद्मपुराण एक पौराणिक बृहद महाकाव्य के रूप मे पूर्णतः खरा उतरता है। प्रस्तुत पद्मपुराण या पद्मचरित की कथावस्तु का उद्देश्य आठवे बलभद्र पद्म (राम), आठवे नारायण लक्ष्मण, प्रतिनारायण रावण तथा उनके परिवारो और सम्बद्ध वशो का चरित वर्णन करना है। ग्रन्थकार ने रचना के आधार की सूचना देते हुए कहा है कि इसका विषय भी वर्धमान तीर्थकर से गौतम गणधर को और उनसे आचार्य परम्परा के अन्तर्गत धारिणी के सुधर्माचार्य को प्राप्त हुआ। फिर प्रभव को और बाद में श्रेष्ठ वक्ता कीर्तिधर आचार्य को प्राप्त हुआ। तदनन्तर उनके द्वारा लिखित कथा को आधार बनाकर रविषेण ने यह ग्रन्थ प्रकट किया। इस ग्रन्थ के 123 पर्वो की कथावस्तु को छह खण्डों में विभक्त किया जा सकता है 1. विद्याधर काण्ड 2. जन्म और विवाह काण्ड, 3. वनभ्रमण, 4. सीताहरण और उसका अन्वेषण, 5. युद्ध, 6. उत्तर चरित। पद्म-राम के कई जन्मों की कथा तथा उनके परिकर में निवास करने वाले सुग्रीव, विभीषण, हनुमान की जीवन-व्यापी कथा भी इस चरितकाव्य से सम्बद्ध है। कतिपय पात्रों के जीवन-आख्यान तो इतने विस्तृत आये है, जिससे उन्हें स्वतंत्र काव्य या पुराण भी कहा जा सकता है। इसमें आधिकारिक कथावस्तु मुनि रामचन्द्रजी की है और अवान्तर या प्रासगिक कथाएँ वानर वश
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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