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________________ अनेकान्त-56/1-2 या विद्याधर वश के आख्यान के रूप मे आयी है। इन दोनो वंशों का कवि ने बहुत विस्तृत वर्णन किया है। यही कारण है कि चरित काव्य के समस्त गुण इस ग्रन्थ मे समाविष्ट है। अंगीरूप में शान्त रस का परिपाक इसमें हुआ है। पगार के वियोग और दोनो ही पक्ष सीता अपहरण एव राम विवाह के अनन्तर घटित हुए है। महाकवि रविषेण को इसमे करुण रस के चित्रण मे अभूतपूर्व सफलता मिली है। इसी तरह वर्णनो के चित्रण में भी कवि को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। कथारम्भ में 1. विद्याधर लोक, 2 राक्षस वश, 3. वानरवश, 4. सोमवश, 5. सूर्यवश और 6. इक्ष्वाकुवश का अच्छा वर्णन है। रविषेण ने कथावस्तु के साथ वानरवश, राक्षसवश आदि की व्याख्याए भी बुद्धिसगत की है। निःसन्देह कवि की इन्ही मौलिकताओ की दृष्टि से ग्रन्थ अद्वितीय हुआ है। इनके मतानुसार देवताओ से वानरो की उत्पत्ति नही हुई है। अत: ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य, विश्वकर्मा, नल. अग्नि. कुबेर, वरुण, पवन आदि तत्तद नामधारी मानव व्यक्ति विशेष हैं। इन व्यक्ति विशेषो से ही वानरजाति के व्यक्ति पैदा हुआ है। जिन विद्याधर राजाओ ने अपना ध्वज-चिन्ह वानर अपना लिया था, वे विद्याधर राजा वानरवशी कहलाये। वानर पशु नहीं, मनुष्य हैं, जो विद्याधरों या भूमिगोचरियों के रूप में वर्णित है। इस प्रकार रविषेण ने वाल्मीकि द्वारा कल्पित पशुजाति का मानवीकरण किया है। इसी प्रकार राक्षसवंश के सबध मे आचार्य रविषेण की मान्यता वाल्मीकि से भिन्न है। इन्होंने जिस प्रकार वानरद्वीप निवासियो को वानरवशी माना उसी प्रकार राक्षसद्वीप वासियो को राक्षसवशी कहा है। अमराख्य और भानुराख्य नामक तेजस्वी राजाओं की परम्परा मे मेघवाहन नामक पुत्र ने जन्म लिया। इसके राक्षस नामक पुत्र उत्पन्न हुआ. जो अत्यन्त प्रभावशाली एव स्वयशाभिलाषी हुआ। इस राक्षस राजा से प्रवर्तित वश राक्षसवश कहलाने लगा। यं गक्षम जनसाधारण की रक्षा करते थे, इसलिए भी राक्षम कहलाने लगे। इस प्रकार कवि ने राक्षस और वानरवंश की विशिष्ट एव यथार्थ व्याख्याएँ की है। इस तरह अनेक वशो के वर्णन के साथ तथा इन सभी प्रसगो के माथ कथाप्रेत
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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