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________________ अनेकान्त-56/1-2 29 आचार्य रविषेण को काफी आदर के साथ स्मरण करते हुए ग्रन्थारम्भ के सन्धि 1 कड़वक 2/3-5 मे कहा है एह रामकह-सरि सोहंती, गणहर-देवेहिं दिट्ठ बहती। पच्छइं इंदभूइ-आयरिएं, पुणु धम्मेण गुणालंकरिएं। पुणु एवहिं संसाराराएं कित्तिहरेण अगुत्तरवाएं। पुणु रविषेणायरियं-पसाएं बुद्धिए अवगाहिय कराएं। प्रस्तुत गाथा छन्दो में स्वयभूदेव ने कहा है कि यह रामकथा तीर्थकर वर्द्धमान के मुख कुहर से विनिर्गत होकर इन्द्रभूति गणधर और सुधर्मास्वामी आदि के द्वारा चली आई है और रविषेणाचार्य के प्रसाद से मुझे प्राप्त हुई है। इन सब उल्लेखो और प्रस्तुत पद्मपुराण के अध्ययन से आचार्य रविषेण का पाण्डित्य, उनका श्रेष्ठ एवं सफल महाकवि रूप का दिग्दर्शन तो होता है, किन्तु उन्होने अपने जीवन के विषय मे कही कुछ विशेष उल्लेख नहीं किया, जिसमें उनके व्यक्तित्व को विशष झलक मिल सके। पद्मपुराण के अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि वे विविध भाषाओ के तो ज्ञाता थे ही, इनकी अन्य रवनाये भी थीं, जो अब तक कही उपलब्ध नही हुई हैं। रामकथा के दो रूप जैनसाहित्य में रामकथा के दो रूप मिलते है-एक तो पउमचरियं और पद्मचरित का तथा दूसरा गुणभद्राचार्य के उत्तरपुराण का। पद्मचरित या पद्मपुराण की कथा प्रायः सभी जानते है। 'जैनरामायण' के रूप में इसे प्रसिद्धि प्राप्त है। रविषेणाचार्य के इस 'पद्मपुराण' का प्राचीन तथा आज की हिन्दी भाषा मे अनुवाद होने की वजह से जन-जन मे इसका अत्यधिक प्रचार-प्रसार है। रामकथा विषयकं जैन साहित्य प्राचीन काल से ही रामकथा मात्र भारत में ही नहीं अपितु विश्व के अनेक देशो मे लोकप्रिय रही है। किसी भी श्रेष्ठ कवि ने रामकथा को अपने काव्य का वर्ण्य विषय बनाने मे गौरव समझा। यही कारण है कि विविध भाषाओं में रामकथा विषयक विपुल साहित्य उपलब्ध होता है। भारत की प्राय: सभी प्राचीन धर्म--परम्पराओ में थोड़े-वहुत अन्तर से रामकथा मिलती है। प्राकृत,
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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