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________________ 28 अनेकान्त-56/1-2 उत्तरार्ध में इस तरह किया है आसीदिन्द्रिगुरोदिवाकयतिः शिष्योऽस्य चार्हन्मुनि स्तस्माल्लक्ष्मणसेन सन्मुनिरदःशिष्यो रविस्तु स्मृतम्।। अर्थात् इन्द्रगुरु के शिष्य दिवाकर यति, दिवाकर यति के अर्हन्मुनि, अर्हन्मुनि के शिष्य लक्ष्मणसेन मुनि थे और उनका शिष्य मैं रविषेण हूँ। पर इसके अतिरिक्त इन्होंने अपने किसी सघ या गण-गच्छ का कोई उल्लेख नही किया और न ही स्थानादि की चर्चा की है। परन्तु अनुमान होता है, संभवतः वे सेनसंघ से ही सम्बद्ध हों। उनके गृहस्थ जीवन के बारे में भी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती। फिर भी क्या यह कम बात है कि उन्होंने अपने प्रस्तुत "पद्मचरित' की रचना का समय (संवत्) स्वयं देकर समय निर्धारण की कठिनाई का हल कर बड़ा उपकार किया है। उन्होंने ग्रन्थ के अन्त अर्थात् एक सौ तेईसवें पर्व के 181 वे पद्य में कहा है द्विशताभ्यधिके समासहस्रे समततीतेऽर्द्ध चतुर्थवर्षयुक्त। जिनभास्करवर्द्धमानसिद्धेश्चरितं पद्ममुनेरिदं निबद्धम्।। अर्थात् जिनसूर्य-भगवान् महावीर के निर्वाण प्राप्त करने के 1203 वर्ष छ: माह बीत जाने पर पद्ममुनि का यह चरित निबद्ध किया। इस प्रकार इसकी रचना वि. सं. 734 (ई. सन् 677) में पूर्ण हुई है। वीरनिर्वाण सं. कार्तिक कृष्णा 30 वि. सं. 469 पूर्व से ही भगवान महावीर के मोक्ष जाने की परम्परा प्रचलित है। इस तरह छ: मास का समय और जोड़ देने पर वैशाख शुक्ल पक्ष वि. सं. 734 इसकी रचना तिथि आती है। रविषेणाचार्य को उनके उत्तरवर्ती उद्योतनसूरि (वि. सं. 835) ने अपनी कुवलयमाला (अनुच्छेद पृ. 4) में पद्मचरति के कर्ता के रूप में स्मरण किया है। वि. सं. 840 में रचित हरिवंशपुराण के रचयिता पुन्नाटसंघी आचार्य जिनसेन (आठवीं शती) ने भी रविषेण को स्मरण किया है, अत: इस तरह स्पष्ट होता है कि रविषेण वि. सं. 840 से पूर्ववर्ती है।' अपभ्रंश "पउमचरिउ" के कर्ता महाकवि स्वयंभूदेव ने अपने ग्रन्थ में
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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