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________________ 126 (1) भाव - मोह, मिथ्यात्व, राग-द्वेष, काषायिक ( क्रोध, लोभादि) आदि जीव के वैभाविक (अशुद्ध / विकृत) भाव हैं । जो आत्म प्रदेशों में (Self Oscillations) उत्पन्न करते हैं । अनेकान्त-56/3-4 (2) द्रव्य बंध- नवीन कर्म - परमाणुओं का पूर्वबद्ध कर्मो के साथ या आत्म-प्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाही रूप हो जाना द्रव्यबंध है । सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते स बंधः । । ( तत्वार्थ सूत्र 8- 21 ) 64 कषाय सहित होने पर कार्मण स्कन्धों को ग्रहण करना बंध है विज्ञान की भाषा में कहें तो आत्म- प्रदेशों के कम्पन (Oscillation) तथा कार्मण तरंगों के कम्पन (Vibration / frequencies) का अध्यारोपण (Interference) होना बंध है I जैन दर्शन में बंध का स्वरूप जोगा पडि पएसा ठिदि अणुभागा कसायदो कुणदि । अयरिणदुच्छिण्णेसु य बंध ठिदिकारणं णत्थि ।। ( गो . कर्मकाण्ड - 257-216) संसारीजीव-योग से प्रकृति व प्रदेश बंध को करता है तथा कषाय से स्थिति एवं अनुभाग- बंध करता है। जो जीव योग और कषाय से युक्त नहीं है, उनके कर्मबंध भी नहीं है । इस प्रकार कर्मबंध चार प्रकार का होता है : 1. प्रकृति बंध - कर्म की प्रकृति / स्वभाव को प्रकृति बंध कहा गया जो आठ प्रकार का है : 1. ज्ञानावरणी कर्म - जो आत्मा के ज्ञान स्वभाव को ढक देता है जैसे भगवान की प्रतिमा के सामने वस्त्र रहने से उनका रूप दक जाता है । 2. दर्शनावरणी कर्म- चेतना रूपी प्रकाश को आवृत करने वाला कर्म है जैसे द्वारपाल - राजा / मंत्री से मिलने नहीं देता । 3. वेदनीय कर्म - इन्द्रियों का अपने रूपादि विषयों का अनुभव करना वेदनीय है। उसमें साता / असाता रूप सुख/दुःख का जो कर्म वेदन
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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