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अनेकान्त-56/3-4
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(अनुभव) कराते हैं वे वेदनीय कर्म है। 4. मोहनीय कर्म- जो जीव को मोहित करे। जो जीव के दर्शन गुण को
मोहित करके उसे मिथ्यादृष्टि बनाता है, वह दर्शन मोहनीय है तथा जो जीव के चारित्र गुण को मोहित करके आत्मा के चारित्र गुण को प्रकट नहीं होने देता वह चारित्र मोहनीय है जैसे शराब के नशे में
जीव अपने को भूल जाता है। यह सबसे शक्तिशाली कर्म है। 5. आयुकर्म- जिस कर्म के उदय से जीव नाना गतियों में जाता है/जाने
के लिए मजबूर होता है। 6. नानकर्म- जैसे चित्रकार अनेक प्रकार के चित्र बनाता है, उसी प्रकार नामकर्म संसार संरचना का काम करता है। शुभ नामकर्म से सुन्दर
और अशुभ नाम कर्म से विकलांग कुरूपादि शरीर प्राप्त होते हैं। 7. गोत्र कर्म- जैसे कुम्भकार छोटे बड़े घड़ों का निर्माण करता है, उसी
प्रकार यह कर्म जीव को उच्च या नीच आचरण वाले गोत्र में
प्रतिष्ठित करता है। 8. अन्तराय- जो दाता और पात्र आदि के बीच विघ्न उत्पन्न करा दे,
जैस भण्डारी, राजादि के लिए दानादि में हस्तक्षेप का कारण बन जाता है उसी प्रकार अन्तराय कर्म जीव को पराङ्मुखी बना देता है। कर्मो की ये आठ प्रकृति, तरंग-सिद्धान्त से विभिन्न तरंग-दैर्ध्य (wave length) वाली या उनकी विशिष्ट बारंबारता (Freguencies) में हआ करती हैं। अलग-अलग तरंग-दैर्ध्य की कार्मण तंरगें, अलग-अलग प्रकति/स्वभाव वाली होती हैं जैसे भिन्न-भिन्न रंगों का प्रकाश भिन्न-भिन्न तरंग दैर्ध्य वाला होता है।
2. अनुभाग बंध
विपाकः प्रागुपात्तानां यः शुभशभकर्मणम्।
असावनुभवी ज्ञेयो यथानाम भवेच्च सः।। पूर्व में कहे शुभ-अशुभ कर्मो का जो विपाक-रस है वह अनुभाग/अनुभव कहलाता है। जिस कर्म का जैसा नाम है, उसका वैसा ही अनुभव है।