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________________ 124 अनेकान्त-56/3-4 और विपाक काल आता है, तो उस व्यक्ति से वह काम जैसे कोई जबरन करवा देता है। जब कर्म का विपाक आता है तो दो स्थितियां बनती हैं : (1) पुण्य कर्म का विपाक आया तो सुख मिलता है-प्रिय संवेदन होता है। धर्म के प्रति श्रद्धाभिभूत सम्यग्दृष्टि उस समय विचारता है कि मैं पुण्य का ऐसा भोग करूँ जिससे आगे वह पाप का कारण न बन जाये। वह सोचता है कि पुण्य से जो सुख-सुविधाएं/भोग प्राप्त हैं, इन्हें मैं नहीं भोगूंगा। वह कर्मो से हल्का होता हुआ निर्जरा को प्राप्त होता है। धर्म से विहीन व्यक्ति पुण्यकर्म के विपाक समय मिली सुख/सुविधाओं में इतना मग्न हो जाता है कि वह अपने हेय/उपादेय का ख्याल नहीं रखता जिससे वह आगामी कर्मो का बंध ही करता है। (2) जब पाप कर्म का विपाक आता है तो व्यक्ति बेहाल हो जाता है। परन्तु सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा विचारता है कि मैंने अतीत में अशुभ कर्म किया जिसका यह दुःख रूप फल है अतः इसका भोक्ता क्यों बनूँ? ऐसा विचार कर वह समता भाव रखता है, जिससे नए पाप कर्म नहीं बांधता है। उक्त दोनों स्थितियाँ तब बनतीं हैं जब ज्ञान चेतना जागती है। कर्मबन्ध की प्रक्रिया (वैज्ञानिक पृष्ठ भूमि)- कर्म का आसव, बंध तथा कर्म का संवर और निर्जरा, वैज्ञानिक सिद्धान्त के आधार से व्याख्यायित की जा सकती है। कर्म सिद्धान्त की वैज्ञानिकता- पुद्गल द्रव्य (Physical matter) को 33 वर्गणाओं (Classifications) के अन्तर्गत रखा माना गया है। इनमें एक कार्मण वर्गणा भी है। जो जीव के विभाव परिणमन के अनुसार कर्मरूप बदलकर जीव/आत्मा के साथ संयुक्त हो जाते हैं। सम्पूर्ण लोकाकाश इन कार्मण रूप सूक्ष्म पुद्गल द्रव्य से भरा हुआ है, जैसे सम्पूर्ण आकाश में विद्युत चुम्बकीय तरंगें (Electro magnetic waves) व्याप्त हैं। कर्म-परमाणु के पंज अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण, तरंग रूप में गमन करते हुए माने जा सकते हैं। जिनकी कम्पनाक (Frequencies) बहुत उच्चतम-X-Rays के कम्पनांक (1011-1017 Htz) की तुलना में असंख्य गुना ज्यादा होती है।
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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