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________________ अनेकान्त-56/3-4 123 कर्मरूप में बदल जाते हैं। अर्थात् भावों से द्रव्यकर्म आमंत्रित होते हैं। इसी प्रकार द्रव्य कर्म का सहयोग पाकर जीव मिथ्यात्व और रागादि-भाव रूप परिणाम करता है। जैस पुरुष द्वारा ग्रहण किया आहार रस विपाकों द्वारा मांस, रुधिर, मज्जा, वीर्य आदि में रूपान्तरित हो जाता है, उसी प्रकार कर्म-स्कन्ध (समूह) भी जीवों में रागादि भावों को प्राप्त करके आठ स्वभाव वाले कर्मो में परिणमित हो जाता है। कर्म का रसायनविज्ञान- कर्म का उदय जीव की स्वतन्त्रता को बाधित करता है और इसे परतंत्र रखना चाहता है। जीव के पारिणामिक भाव और औदयिक भाव, दोनों का संघर्ष निरन्तर चालू है। उस संघर्ष ने जीव की चेतना को तीन भागों में विभाजित कर दिया : 1. ज्ञान चेतना, 2. कर्म चेतना और 3. कर्मफल चेतना। 1. ज्ञान चेतना का काम है मात्र जानना। आँख के सामने आई वस्तु का ज्ञान हो जाना ज्ञान चेतना है। 2. कर्म चेतना- इसका काम रागद्वेष उत्पन्न करना है। पाँचों इन्द्रियों के विषय हमारे सामने आते हैं, उसमें किसी के प्रति राग तो किसी दूसरे विषय के प्रति द्वेष, यह काम मोह का है या कहें कि कर्म चेतना का है। 3. कर्मफल चेतना- इसका काम सुख-दुखः की संवेदना पैदा करना है। इष्ट विषय में सुख का संवेदन और अनिष्ट से दुःख का संवेदन, यह कर्मफल चेतना का काम है। मेडिकल साइन्स के अनुसार अनेक प्रकार की शारीरिक ग्रन्थियों के रसायन (chemicals) बनते हैं और रसों का स्राव होता है। कर्मशास्त्र के अनुसार कर्म का रसायन बनता है, जिसे कर्म का अनुभाग बंध कहते हैं। कर्म का रसविपाक, ग्रन्थितंत्र और नाड़ीतंत्र को प्रभावित करता है। कर्म उदय आया, विपाक हुआ और नाड़ी ग्रन्थि तंत्र प्रभावित हो गया। रस बदला और विचार बदल जाते हैं। आचार/व्यवहार बदल जाता है। कई बार ऐसा होता है कि व्यक्ति यह जानता है कि अमुक काम बुरा है किन्तु जब कर्म का उदय
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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