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________________ 122 त-56/3-4 और शक्ति वाला है परन्तु जीव के ये मूल गुण वर्तमान में प्रगट नहीं है उसका कारण हमारे भाव-कर्म और द्रव्य कर्म की संतति है। सो सव्वणाणदरिसी कम्मरयेण णियेण तच्छण्णे (समयसारग गा. 67) अनन्त चतुष्टय शक्ति वाले जीव को पराभूत करने वाला प्रतिपक्षी द्रव्य कर्म भी अनन्त शक्ति सम्पन्न है। जैसा आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश में कहा मोहने संवृतं ज्ञानं, स्वभावं लभते न हि। मत्तः पुमान्पदार्थानां यथा मदनकोद्रवैः।। जिस प्रकार नशीले कोदों के सेवन से जीव हिताहित को भूल कर मदमस्त हो जाता है, उसी प्रकार मोहकर्म रूपी मद्य से अपने मूल स्वरूप, शुद्ध रूप को प्राप्त नहीं कर पा रहा है। जैसे मैल के प्रभाव से वस्त्र की शुभ्रता नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार कर्मों की सत्ता के कारण जीव संसारी बना दुःख प्राप्त कर रहा है। मोक्ष-मार्ग को प्रशस्त करने गुण को रोकने वाला मिथ्यात्व, अज्ञान और कषाय भाव के उदय से आत्मा मिथ्या दृष्टि, अज्ञानी और अचारित्री हो रहा है। नास्ति कर्मफलच्छेताकाश्चिल्लोक मयोऽपि च। (महाभारत) तीन लोक में कोई ऐसा पुरुष नहीं जो कर्मों के फल को भोगे बिना उन्हें नष्ट कर सके। आंग्ल-भाषा में कहावत है "As we Sow, so we reap". हम जो. बीज बोते हैं उसी के फल की फसल काटते हैं। जीव परिणाम हेर्नु कम्मतं पुग्गला परिणमेति। पुग्गल कम्मणिमित्तं, तहवे जीवो वि परिणमदि।। (समयसार गाथा 80) जीव के रागद्वेष परिणामों का निमित्त पाकर कर्मवर्गणा योग्य पुद्गल द्रव्य
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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