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________________ 1-56/3-4 113 वे पर्यायें ही द्रव्य है, इसलिये द्रव्य ही उत्पादादि तीनों वाला कहा जाता है (पंचाध्यायी पूर्वी 200)। पर्याय भी कथंचित ध्रव है क्योंकि उसकी स्थिति एकक्षण की होती है। द्रव्य में उत्पाद, विनाश और ध्रौव्य यह तीनों युगपत (अक्रम) से एक साथ होते हैं। किन्तु पर्याय में उत्पाद विनाश और स्थिति क्रम से होती है। उक्तानुसार एक लोक में सभी चेतन और जड़ पदार्थ स्वतंत्र सत्ता लिए त्रिलक्षण रूप से अपने स्वभाव में अवस्थित हैं। ऐसी स्थिति में जीव और जड़ कर्म के बंधन तथा क्रोधादिक रूप परिणमन क्यों और केसे होता हैं, इसकी मीमांसा आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार के कर्ता-कर्म अधिकार में की है। उनका तर्क है कि यदि जीव स्वयं कर्म से नहीं बंधा और स्वयं क्रोधादि रूप परिणमन नहीं करता तो वह अपरिणामी ठहरता है, ऐसा होने पर संसार का अभाव प्राप्त होता है। यह कहना कि अपरिणामी जीव को क्रोधादि कर्म क्रोधादिक रूप से परिणमा देते हैं तो यह बात युक्ति युक्त नहीं लगती क्योंकि जीव को स्वयं परिणमन स्वभाव वाला नहीं मानने पर क्रोधादि कर्म उसे क्रोधादिक रूप से कैसे परिणमा सकते हैं? अर्थात् नहीं परिणमा सकते। यदि इस दोष को दूर करने जीव को स्वयं परिणमन शील मानते हैं तो क्रोधादि कर्म जीव को क्रोधादि भाव रूप से परिणमाते हैं यह बात मिथ्या हो जाती है। इससे यही फलित होता है कि जब जीव स्वयं क्रोध रूप से परिणमन करता है तब वह स्वयं क्रोध है, जब स्वयं मान रूप परिणमन करता है तब वह स्वयं मान है (स. सार गा. 116 से 120 व 125)। उन्होंने इसी प्रकार पुद्गल कार्माण वर्गणाओं का ज्ञानावरणदिक कर्म रूप परिमणमन करने की मीमांसा की और उसका प्रमुख कारण परिणमन स्वभाव को सिद्ध किया। जीव कर्म रूप और कर्म जीव रूप क्यों परिणमित नहीं हो सकते उसका समाधान समयसार गाथा 103 में इस प्रकार दिया है जो जम्हि गुणे दवे सो अण्णम्हि दु ण संकमदि दव्वे सो अण्णमसंकंतो कह तं परिणामए दव्वं (स. सार 103) अर्थ- जो जिस द्रव्य या गुण में अनादि काल से वर्त रहा है वह उसे
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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