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अनेकान्त-56/3-4
धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एक है और काल द्रव्य असंख्यात हैं । काल द्रव्य एक प्रदेशी होने के कारण अनस्तिकाय है, शेष द्रव्य बहु प्रदेशी होने से अस्तिकाय रूप हैं । जीव और पुद्गल द्रव्य में स्वभाव और विभाव रूप परिणमन करने की क्षमता है जबकि शेष चार द्रव्यों का परिणमन निरंतर शुद्ध ही रहता है । जीव और पुद्गल द्रव्य परिणामी, क्रियावती शक्ति वाले हैं। शेष चार द्रव्य अपरिणामी - निष्क्रिय हैं।
विश्व में नित नवीन परिवर्तन का आधार सत् द्रव्य का त्रिलक्षण स्वभाव है | चेतन-अचेतन द्रव्यों में अंतरंग और बहिरंग निमित्त से प्रति समय नवीन अवस्था प्राप्त होती है, उसे उत्पाद कहते हैं, उत्पाद दो प्रकार का हैस्वनिमित्तिक उत्पाद यथा - अगुरुलघु गुण का बर्तन और परनिमित्तिक उत्पाद - धर्मादिक निष्क्रिय द्रव्यों में पर प्रत्यय की अपेक्षा उत्पाद अश्वादिक की गति स्थिति अवगाहन पूर्व अवस्था के त्याग को व्यय कहते हैं जैसे घर की उत्पत्ति में पिण्ड रूप आकार का त्याग हो जाता है । द्रव्य का जो अनादि कालीन पारिणामिक स्वभाव है उसका उत्पाद और व्यय नहीं होता किन्तु वह स्थिर रहता है। इसलिए उसे ध्रुव कहते हैं । इस ध्रुव का भाव या कर्म ध्रौव्य कहलाता है । जैसे मिट्टी घर और पिण्ड में मिट्टी का अन्वय होना । इस प्रकार एक ही द्रव्य / पदार्थ में उत्पाद व्यय और ध्रौव्यत्व (स्थिति) एक साथ होती है। जो पदार्थ उत्पन्न होता है वही कुछ काल तक स्थित रहकर बाद में व्यय को प्राप्त होता है । उत्पत्ति और व्यय में द्रव्य का अन्वय बना रहता है । आचार्य उमास्वामी ने द्रव्य को केवल सामान्य रूप से उत्पाद, व्यय और धौव्य रूप बताया गया। आचार्य समन्तभद्र प्रतिपादित किया कि वस्तु का सामान्य रूप से न तो उत्पाद होता है और न विनाश । किन्तु उत्पाद और विनाश विशेष रूप से होता है । इस प्रकार द्रव्य का उत्पाद और विनाश नही होता मात्र पर्याय का ही होता है । विनाश और उत्पन्न पर्यायों में द्रव्य का अन्वय सदैव बना रहता है।
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उत्पाद और विनाश द्रव्य का नहीं होता, उसका सदभाव बना रहता है किन्तु उसकी पर्यायें उत्पाद - विनाश व ध्रुवता करती हैं ( प्रसार 11 ) निश्चय से उत्पाद विनाश और ध्रौव्य ये तीनों पर्यायों के होते हैं । सत् के नहीं। क्योंकि