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________________ 114 अनेकान्त-56/3-4 छोड़कर अन्य द्रव्य या गुण में कभी भी संक्रमित नहीं होता। अन्य रूप से संक्रमित नहीं होती हुई वस्तु अन्य वस्तु को कैसे परिणमा सकती है? वस्तु की इस मर्यादा के कारण आत्मा पुद्गलमय कर्म में द्रव्य को तथा गुण को नहीं करता ऐसी स्थिति में आत्मा कर्म का कर्ता कैसे हो सकता है? निमित्त नैमित्तिक भाव से ऐसा कथन उपचार मात्र है। आत्मा में और कर्ता कर्म भाव की सिद्धि नहीं होती। इस प्रकार दो द्रव्य एवं गुणों के मध्य स्वतंत्रता के बोध से यह सिद्ध हुआ कि जीव अपने अज्ञान भाव से दुःखी है क्योंकि आत्मा जिस भाव को कर्ता है, उस भाव रूप कर्म (काय) का वह कर्ता होता है; ज्ञानी को तो वह ज्ञानमय है और अज्ञानी को अज्ञानमय है (स. सार. 126) इस न्याय के अनुसार जीव जिन शुभ या अशुभ भाव रूप परिणमन करता है तब वह शुभ या अशुभ स्वयं ही होता है और जब वह शुद्धभाव रूप परिणमित होता है तब वह शुद्ध होता है (प्र. सार 9)। शुभ से स्र्वगादिक, अशुभ से नीच गति एवं शुद्ध से सिद्धत्व मिलता है। उक्त कथन से यह भी निष्कर्ष निकलता है कि लोक में जितने भी कार्य होते हैं, वे सब उपादान शक्ति से होते हैं। मिट्टी से घर और कपास से पट बनता है। आचार्य जयसेन के अनुसार उपादान कारण के सदृश ही कार्य होता है। ज्ञान-भाव रूप उपादान से ज्ञानमय भाव ही होता है और अज्ञान-भाव रूप उपादान से अज्ञानमय भाव होता है (स0 सार) तात्पर्यकृत्ति गाथा 186 टीका)। इस पदार्थ ज्ञान के इस गूढ़ रहस्य को हृदयंगम करने वाले महानुभाव को शुद्धात्मा जानने-अनुभव करने पर अशुद्धात्मा प्राप्त होता है (स0 सार गा. 186) और शुद्धात्मा की उपलब्धि से कर्मागमन के अभाव रूप संवर होता है। सत्-स्वरूप-अनुभव से स्व-समय की प्राप्ति- दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित भव्य जीव स्व-समय है, पुद्गल कर्म-प्रदेश स्थित जीव पर-समय है (स. सार 2)। जो जीव पर्याय में लीन है वह पर-समय है और जो आत्म स्वभाव में लीन है वह स्व-समय है (प्र. सार. 94) पर्याय-मूढ़ मिथ्यादृष्टि होता है। सत् स्वभाव
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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