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अनेकान्त-56/3-4
1. द्रव्य कर्म, भाव कर्म और नो कर्मों में 'यह मैं हूँ' और मुझमें 'यह
कर्म-नो कर्म हैं, (समयसार गा. 19)। पर से एकत्व-ममत्व भाव। 2. 'मैं पर जीवों को मारता हूँ या पर जीव मुझे मारते हैं,' 'मैं पर जीवों
को जिलाता हूँ या पर जीव मुझे जिलाते हैं' तथा 'मैं पर जीवों को सुखी-दुखी करता हूँ या पर जीव मुझे सुखी-दुखी करते हैं' ऐसी मोह-अज्ञान रूप मान्यता (स. सार गा. 247, 250, 253)। पर के
कर्तृत्व-स्वामित्व की भावना। 3. मैं कर्म प्रकृति के निमित्त से उपजता-निशता हूँ और कर्म फल भोगता
हूँ (स. सार गा. 314/315) परतन्त्रता एवं परावलम्बन की भावना। 4. पदार्थ के स्वरूप को नहीं जानना, समझना और (आत्म विस्मृतकर)
पर-द्रव्य को अपना मानना (गा. 324)। अविद्या-मोह की निष्पत्ति । 5. अज्ञानमय भाव से अज्ञानमय भाव उत्पन्न होने के कारण निरंतर कर्म
बंध को करता है (स. सा. गा. 126, 127)। कर्मोदय-कर्मवध के
दुष्चक्र का मूल अज्ञानमय भाव एव पर-समय प्रवृत्ति है। जीव के उक्त दु:ख के कारणों का विनाश दीपक-प्रकाश जैसा उस समय . हो जाता है जब जीव द्रव्य के सत्-सिद्धान्त के हार्द को तत्व निष्ठा पूर्वक समझकर आत्मानुभव एवं शुद्धोपयोग द्वारा कर्म-बंधन काट सिद्धालय में अविनाशी, अतीन्द्रिय, आत्मीक-आनंद का भोग चिरकाल तक करेगा। इसका प्रारम्भ होगा सम्यग्दर्शन-ज्ञान से। आचार्य कुन्द-कुन्द के शब्दों में भूतार्थ रूप से अवस्थित जीव, अजीव, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष का श्रद्धान-सम्यग्दर्शन है (सार गा. 13)। इन नव पदार्थो के मध्य छिपी आत्मा की ज्ञान ज्योति द्रव्य के सत् स्वरूप के ज्ञान एवं निज आत्मतत्व के भाव भासन से प्रकाश मात्र होती है इस दृष्टि से सत् सत्ता के सूचक के साथ सत्य-धर्म अर्थात् Truth Is God, सत्य ही ईश्वर है का सूचक है। यह ऐसा है जो ‘सत्यं शिवं सुन्दरं' की लोकोक्ति को चरिचार्थ करता है। आचार्य कुन्दकुन्द के
अनुसार द्रव्य का एकत्व-विभक्त रूप ही सौंदर्य का प्रतीक है। त्रिलक्षणात्मक सत्-स्वरूप- आचार्य उमास्वामी ने द्रव्य का लक्षण सत् कहा