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अनेकान्त-56/3-4
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तीन-काल और तीन-वलय। त्रिरत्न-मोक्षमार्ग और त्रिदोष-संसार मार्ग। तीन-चेतना, तीन-गुप्ति, तीन-उपयोगी, तीन-करण, तीन-परिणाम, तीन-कर्म, तीन-बंक, तीन-निदान, तीन-भाव, तीन-गारव, तीन-मकार। सत-स्वरूप त्रिलक्षणात्मक और त्रिपदात्मक तथा वस्तु को जानने के तीन साधन।
पंचास्तिकाय संग्रह ग्रंथ में आचार्य कुन्दकुन्द ने लोक की तत्वव्यवस्था एवं कारण-कार्यत्व के शाश्वत सिद्धान्त की घोषणा करते हुए कहा कि सत् का कभी नाश नहीं होता और असत् की उत्पाद नहीं है, भाव-सत् द्रव्य-गुण-पर्याय में उत्पाद व्यय करते हैं। प्रकारान्तर से उत्पाद होने से कहीं असत् की उत्पत्ति नहीं होती और व्यय होने से कहीं सत् का विनाश नहीं होता। आचार्य के शब्दों में
भावस्य णत्थि णासो णत्थि अभावस्य चेव उत्पादो गुण पज्जाएसु भावा उप्पादवए पकुव्वंति (पंचा. सं. 15) जीवादि द्रव्य भाव हैं जिनका कभी नाश नहीं होता और अभाव का उत्पाद नही होता। मनुष्य से देव पर्याय पाने में जीव जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त करता है तथापि जीव उत्पन्न नहीं होता और नष्ट नहीं होता; देव, मनुष्य ऐसी पर्याय उत्पन्न होती और विनष्ट होती है (गा. 17-18)। यहाँ ध्रुवता की अपेक्षा सत् का विनाश या असत् का उत्पाद नहीं कहा (पं. गा 19)। मनुष्य, देव आदि पर्यायों मे जीव के जन्म-मरण के रहस्य में जो विलक्षणात्मक एवं त्रिपदात्मक सत्-सिद्धान्त प्रभावशील होता है वही सिद्धान्त लोक के सभी द्रव्यों, तत्वों एवं पदार्थो को नियंत्रित-अनुशासित करता है। इस दृष्टि से सत् स्वरूप अकृत, अहेतुक, अनादि-निधन, स्व-संचालित लोक व्यवस्था का आधार है जो अनंत काल तक निर्वाध रूप से गतिमान होकर लोक के अस्तित्व को बनाए रखेगा।
अध्यात्म जगत में सत् स्वरूप की उपयोगिता समझने हेतु, द्रव्य के सत्-स्वरूप की व्याख्या के पहिले, यह स्पष्ट करना समीचीन होगा कि जीव अनादि काल से तत्त्वस्वरूप के अज्ञान से उत्पन्न जिन कारणों से दुखी है, वे निम्न प्रकार की मिथ्या मान्यताएँ हैं