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अनेकान्त-56/3-4
इसलिए वह रागादिक को अपने में नहीं करता और इसीलिए वह रागादि का कर्ता नहीं है।
यद्यपि ज्ञानी आत्मा भी राग की दशा में रागी ही है क्योंकि द्रव्य जिस समय जिस भाव रूप परिणमन करता है उस समय वह उस भाव रूप ही हो जाता है। लेकिन इस दशा में भी ज्ञानी आत्मा रागादि का कर्ता नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह भेदज्ञान से स्वयं को शुद्ध रूप अनुभव करता हुआ उन रागादिक को अपने में नहीं करता है। ज्ञानी की स्थिति - हमें ज्ञानी आत्मा और अज्ञानी आत्मा का भेद करना ही पड़ता है क्योंकि कर्तृत्व और अकर्तृत्व के निर्धारण का प्रमुख आधार यही भेद है। 'जो वस्तु स्वभाव को जानकर भेद विज्ञान को प्राप्त हुआ ज्ञानी आत्मा है वह स्वयं को पहचान चुका है कि वह द्रव्यदृष्टि से शुद्ध ही है इसलिए वह स्वयमेव अपने में राग-द्वेष मोह तथा कषायभाव नहीं करता है इसलिए वह इन भावों का कर्ता नहीं है। वह द्रव्य दृष्टि से अपरिणमन स्वरूप है मात्र पर्याय दृष्टि से पर द्रव्य के निमित्त से रागादि रूप परिणमता है। वह तो उदय में आये हुए फलों का ज्ञाता ही है। ___ इस प्रकार यहां आचार्य कुन्दकुन्द ने 'स्फटिकमणि' के माध्यम से ज्ञानी आत्मा में पूर्वकर्मोदय वशात् होने वाले रागद्वेषादि भावों के प्रति अकर्तापना समझाया। यह दृष्टान्त बहुत बड़ी आध्यात्मिक समस्या का समाधान बहुत आसानी से समझा देता है। ज्ञानी के रागादि भावों के होते हुये भी वह उनका कर्ता नहीं तथा उनके निमित्त से उसको कोई नवीन कर्मबन्ध नहीं होता। इस प्रकार की गहराई को समझाना आसान नहीं है किन्तु आचार्य ने 'स्फटिकमणि' के दृष्टान्त से इस उलझन जैसे प्रतीत होने वाले सिद्धान्त को भी अत्यन्त सुगमता पूर्वक ऐसे समझाया कि बालक भी इस गहरायी को आसानी से समझ सकता है।
कर्तृत्वपना अज्ञान दशा में होता है। ज्ञान दशा होने पर आत्मा समस्त भावों की अकर्ता है ऐसी पहचान हो जाती है। इस आत्मा का जिस प्रकार