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________________ अनेकान्त-56/3-4 99 नहीं? या फिर कोई अन्य कारण है? समाधान : दान्ति - शुद्ध स्वपरभेदविज्ञानी जो आत्मा है वह पूर्वकर्मोदयवशात् रागयक्त होते हये भी उसमें रागादि भावों के कर्तापने रूप भाव का अभाव होने से वह नये कर्मो का बन्धन नहीं करता। ऐसा ज्ञानी आत्मा जान चुका है कि वह खुद ही अपने रागादि परिणाम होने का निमित्त नहीं है, परन्तु जो परद्रव्य (कर्मादि, पुद्गल द्रव्य) हैं वे स्वयं रागादि भाव को प्राप्त होने से मेरे रागादिक के निमित्तभूत हैं। यही कारण है कि मैं (आत्मा) परिणामी होने से अपने शुद्ध स्वभाव से च्युत होकर ही रागादि रूप परिणमित होने लगता हूँ। किन्तु इससे मेरा (आत्मा का) अविनाशी विशुद्ध चैतन्यमात्र स्वभाव नष्ट नहीं हो जाता है। समाधान का निष्कर्ष - आत्मा स्वभाव से तो अत्यन्त शुद्ध ही है, जिस तरह का पर का निमित्त मिले वैसा ही परिणमता है। दृष्टान्त – इस दान्ति के लिए आचार्य कुन्दकुन्द ने इसकी सूक्ष्मता को समझते हुये ‘स्फटिकमणि' का दृष्टान्त 278-79 वीं गाथा में प्रस्तुत किया है- ‘स्फटिकमणि आप तो केवल एकाकार शुद्ध ही है परन्तु जब परद्रव्य के निमित्त से लालिमा आदि का संयोग होता है तब वह लालिमा का रुप परिणमित हो जाता है। इसी प्रकार ज्ञानी आत्मा का भी स्वभाव है। वह ज्ञानी आत्मा स्वयं शुद्ध है। वह रागादि भाव रूप स्वयं परिणमित नहीं होता है किन्तु अन्य रागादि परदोषों से रागादि रूप किया जाता है।'' इसी दृष्टान्त को ही आचार्य अमृतचन्द्र ने अपनी आत्मख्याति टीका एवं कलश में 'सूर्यकान्तमणि' के माध्यम से समझाया है। वे मानते हैं कि आत्मा में रागादिक होने का निमित्त परद्रव्य का सम्बन्ध ही है। सूर्यकान्तमणि खुद अग्नि रूप नहीं परिणमता उसमें सूर्य का निमित्त (उसका बिम्ब) अग्नि रूप होने को निमित्त है। उक्त प्रकार की वस्तु व्यवस्था तथा वस्तु का स्वभाव ज्ञानी को ज्ञात है
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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