SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त-56/3-4 101 कर्तापने का स्वभाव नहीं है उसी प्रकार भोक्तापने का भी स्वभाव नहीं है। यह आत्मा अज्ञान से कर्ता माना जाता है। जब अज्ञान का अभाव हो जाता है तब कर्ता नहीं है। (बी) तथ्य - जीव पर द्रव्य का कर्ता नहीं है। समस्या – यदि जीव पर द्रव्य का कर्ता नहीं है तो कौन है? समाधान दाष्टन्ति - जीव और अजीव (पुद्गलादि कर्मादि) के जो परिणाम कहे गये हैं उन परिणामों से उस जीव अजीव को अन्य नहीं जानना क्योंकि परिणाम में वे द्रव्य ही हैं। यह आत्मा किसी से भी उत्पन्न नहीं हुआ है इसलिए किसी का किया हुआ कार्य नहीं है और वह आत्मा किसी अन्य को भी उत्पन्न नहीं करता इसलिये वह किसी का कारण भी नहीं है, कर्म को आश्रय करके कर्ता होता है और कर्ता को आश्रय करके कर्म उत्पन्न होता है ऐसा नियम है। अन्य प्रकार से कर्ता कर्म की सिद्धि देखी नहीं जाती है।' समाधान का निष्कर्ष – सभी द्रव्यों के परिणाम भिन्न-भिन्न हैं। सभी द्रव्य अपने अपने परिणामों के कर्ता हैं। वे परिणाम उनके कर्म हैं। निश्चय से किसी का किसी के साथ कर्ता कर्म सम्बन्ध नहीं है। इसलिये जीव अपने ही परिणामों का कर्ता है, और अपने परिणाम कर्म हैं। इसी प्रकार अजीव अपने परिणामों का कर्ता है, और उसके परिणाम कर्म है। अतः जीव परद्रव्य में कुछ नहीं करता और न ही परद्रव्य जीव का कुछ करता है। सभी अपने अपने में परिणमन करते हुए पूर्ण स्वतन्त्र हैं। दृष्टान्त – उपर्युक्त सिद्धान्त को स्पष्ट करने के लिए आचार्य ने 'सुवर्ण के कड़े' का उदाहरण दिया है कि जिस प्रकार कड़ा इत्यादि पर्यायें सुवर्ण से अतग नहीं है, उसी प्रकार द्रव्य जिन गुणों से उत्पन्न होता है उन गुणों से वह अनन्य (अलग नहीं) है। द्रव्यमात्र अपनी ही पर्यायों का कर्ता है। प्रत्येक द्रव्य में अनन्त पर्यायें होती हैं। वे पर्यायें ही उस द्रव्य की कर्म हैं। इस प्रकार द्रव्य मे ही कर्ता-कर्म
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy