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________________ अनेकान्त-56/3-4 19 करना अमनोज्ञ वियोगचिन्ता आर्त्तध्यान है। (2) मनोज्ञ-अवियोगचिन्ता- पांचों इन्द्रियों के विभिन्न मनोज्ञ विषयों का एवं माता, पिता, पुत्र पुत्री, पत्नी, भाई, बहन, मित्र, स्वजन, परिजन आदि सबके मिलने पर वियोग न होने का अध्यवसाय (विचार) करना तथा भविष्य में भी इनका वियोग न हो ऐसा निरन्तर सोचना मनोज्ञ-अवियोगचिन्ता नामक द्वितीय आर्तध्यान है। (3) आतंक (रोग) वियोगचिन्ता- वात, पित्त और कफ के प्रकोप से उत्पन्न व्याकुलता को दूर करने के लिए सतत् चिन्तित रहना 'आतंक-वियोगचिन्ता' नामक तीसरा आर्तध्यान है। (4) भोगेच्छा अथवा निदान- पांचों इन्द्रियों में दो इन्द्रियां कामी (कान-आंख) हैं जबकि शेष तीन इन्द्रियां (रसन, ध्राण, स्पर्शन) भोगी हैं। इन पांचों इन्द्रियों के पांच विषय हैं-शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श। इन इन्द्रियों के द्वारा काम-भोगों को भोगने की इच्छा करना ही 'भोगेच्छा' नामक चौथा आर्तध्यान है। रौद्रध्यान के भेद रौद्रध्यान के भेद-आगम कथित रौद्रध्यान के चार भेद इस प्रकार है (1) हिंसानुबंधि-द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की हिंसा का चिन्तन करना। वर्तमान काल में भी हिंसा के विविध प्रकार दृष्टिगोचर होते हैं वे सब हिंसानुबंधि रौद्रध्यान ही हैं। इसे 'हिंसानन्दि' भी कहते हैं। (2) मृषानुबंधि- झूठ बोलना आदि इसके अनेक प्रकार है। इसे 'मृषानंद' या 'मृषानन्दि' भी कहते हैं। (3) स्तेयानुबंधि-चोरी करना, डाका डालना, चोरी की वस्तु आदि लेना स्तेयानुबंधि रौद्र-ध्यान है। इसे 'चौर्यानन्द' या 'चौर्यानन्दि' भी कहते हैं। (4) संरक्षणानुबन्धी-वस्तु, पदार्थ, आभूषण आदि का संरक्षण करने की तीव्र भावना रखने का चिन्तन करना संरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान है। इसे
SR No.538056
Book TitleAnekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2003
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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